दोस्त , अंधेरे से डरना , अंधेरे में जीना और मरना अब भाता नहीं है। मुझे रोशनी चाहिए। शुभ कर्मों की चांदनी चाहिए।
अब मैं अंधेरे और उजाले में ज़िंदगी के रंगों को देखता हूं। धूप और छाया से सजे ज़िंदगी के दरख्त को सींचता हूं।
बगैर रोशनी के खोये हुए स्मृति चिन्हों को ढूंढ़ना आजकल मेरा प्रिय कर्म है! रोशनी के संग सुकून खोजना धर्म है। अंधेरे और उजाले के घेरे में रहकर जीवन चिंतन करते हुए सतत् आगे बढ़ना ही अब बना जीवन का मर्म है। यह जीव का कर्म है। जीवंतता का धर्म है।
वैसे तो अंधेरे से डरना कोई अच्छी बात नहीं है, परन्तु यह भी सच है कि आदमी कभी कभी रोशनी से भी डरने लगता है। आदमी कहीं भी मरे , रोशनी में या अंधेरे में, बस वह निकल जाए डर के शिकंजे में से। मरने वाले रोशनी के होते हुए भी अंधेरे में खो जाते हैं, शलभ की तरह नियति पाते हैं। इससे पहले कि जीवन ढोने जैसा लगने लगे , हम आत्मचिंतन करते हुए जीवन के पथ पर अपने तमाम डरों पर जीत हासिल करते हुए बढ़ें। अपने भीतर जीवन ऊर्जा भर लें। २२/०९/२००५.