Submit your work, meet writers and drop the ads. Become a member
Jan 10
आज
जीवन के मार्ग पर
निपट अकेले होते जाने का
हम दर्द
झेल रहे हैं
तो इसकी वज़ह
क्या हो सकती है?
इस बाबत कभी
सोचा होगा
आपने
कभी न कभी
और विचारों ने
इंगित किया भी होगा कि
क्या रह गई कमी ?
क्यों रह गई कमी ?

आजकल
आदमी स्वयं की
बाबत संजीदगी से
सोचता है ,
वह पर सुख की
बाबत सोच नहीं
पाता है ,
इस सब स्वार्थ की
आग ने
उसे झुलसा दिया है,
वह अपना भला,
अपना लाभ ही
सोचता है।
कोई दूसरा
जीये या मरे,
रजा रहे या भूखा मरे ,
मुझे क्या?...
जैसी अमानुषिक सोच ने
आज जन-जीवन को
पंगु और अपाहिज कर
दिया है,
बिन बाती और तेल के
दिया कैसे
आसपास को
रोशन कर सकता है ?
क्या कभी यह सब
कभी मन में
ठहराव लाकर
सोच विचार किया है कभी ?
बस इसी कमी ने
आदमी का जीना दुश्वार किया है।
आज आदमी भटकता फिर रहा है।
स्वार्थ के सर्प ने सबको डस लिया है।

मन के भीतर
हद से ज्यादा होने
लगी है उथल-पुथल
फलत: आज
आदमी
बाहर भीतर से
हुआ है शिथिल
और डरा हुआ।
वह सोचने को हुआ है मजबूर !
कभी कभी जीवन क्यों
लगता है रुका हुआ !!
इस मनो व्यथा से
यदि आदमी से
बचना चाहता है
तो यह जरूरी है कि
वह संयमी बने,
धैर्य धन धारण करें।

१०/०१/२०२५.
Written by
Joginder Singh
46
 
Please log in to view and add comments on poems