मुझे वह हमेशा... जो कोठे में बंदी जीवन जी रही है और जो दिन में अनगिनत बार बिकती है, हर बार बिकने के साथ मरती है, पल प्रतिपल सिसकती है फिर भी लोग कहते हैं उसे इंगित कर , "मनमर्ज़ियां करती है।" वह मुझे हमेशा से अच्छी और सच्ची लगती है। दुनिया बेवजह उस पर ताने कसती है। जिसे नीचा दिखाने के लिए, जिसे प्रताड़ित करने के लिए दुनिया भर ने साज़िशों को रचा है। इस मंडी की निर्मिति की है, जिसमें आदमजात की सूरत और सीरत बसी है।
वह क्या कभी किसी क्षण भावावेगों में बहकर सोचती है कि मैं किस घड़ी उस पत्थर से उल्फत कर बैठी ? जिसने धोखे से बाज़ार दिया। और इसके साथ साथ ही सौगात में पल पल , तिल तिल कर भीतर ही भीतर रिसने और सिसकने की सज़ा दे डाली। वह निर्मोही जीवन में सुख भोगता होगा और मैं उल्फत में कैद! एक दुःख, पीड़ा, कष्ट और अजाब झेलती उम्र कैदी बनी रही हूं जीवन के पिंजरे मे पड़ी हुई पछता।
कितना रीत चुकी हूं , इसका कोई हिसाब नहीं। बहुतों के लिए आकर्षण रही हूं , भूली-बिसरी याद बनी हूं। यह सोलह आने सच है कि पल पल घुट घुट कर जीती हूं , दुनिया के लिए एकदम गई बीती हूं।
मेरा चाहने वाला , साथ ही बहकाने वाला क्या कभी अपनी करनी पर शर्मिंदा होता होगा ? उसका भीतर गुनाह का भार समेटे व्यग्र और रोता होगा ?
शायद नहीं ! फिर वह ही क्यों बनती रही है शिकार मर्द के दंभ और दर्प की !
यह भी एक घिनौना सच है कि आदिकाल से यह सिलसिला चलता आया है। जिसने बहुतों को भरमाया है और कइयों को भटकाया है। पता नहीं इस पर कभी रोक लगेगी भी कि नहीं ? यह सब सभ्य दुनिया के अस्तित्व को झिंझोड़ पाएगा भी कि नहीं ? उसके अंदर संवेदनशीलता जगा भी पाएगा कि नहीं ? यह जुल्मों सितम का कहर ढाता रहेगा। सब कुछ को पत्थर बनाता रहेगा।