कभी कभी नींद देरी से खुलती है, दुनिया जगी होती है। सुबह सुबह अख़बार पढ़ने की तलब उठती है पर अख़बार पढ़ने को न मिले , उसे कोई उठा ले। अख़बार ढूंढ़ने पर भी न मिल सके तो मन में बढ़ जाती है बेचैनी , होने लगती है परेशानी।
अख़बार की चोरी धन बल की चोरी से लगने लगती है बड़ी , दुनिया लगती है रुकी हुई और ज़िन्दगी होती है प्रतीत बाहर भीतर से थकी हुई। ऐसे में कुछ कुछ पछतावा होता है, मन में फिर कभी देरी से न उठने का ख्याल उभरता है, मन में जो खालीपन का भाव पैदा हुआ था, वह धीरे-धीरे भरने लगता है , जीवन पूर्ववत चलने लगता है। अख़बार चोरी का अहसास कम होने लगता है। ०३/०१/२०२५.