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Jan 3
कभी कभी
नींद
देरी से
खुलती है,
दुनिया
जगी होती है।
सुबह सुबह
अख़बार पढ़ने की
तलब उठती है
पर
अख़बार  पढ़ने को
न मिले ,
उसे कोई उठा ले।
अख़बार ढूंढ़ने पर भी न मिल सके
तो मन में
बढ़ जाती है बेचैनी ,
होने लगती है परेशानी।

अख़बार की चोरी
धन बल की चोरी से
लगने लगती है बड़ी ,
दुनिया लगती है रुकी हुई
और ज़िन्दगी होती है प्रतीत
बाहर भीतर से थकी हुई।
ऐसे में
कुछ कुछ पछतावा होता है,
मन में फिर कभी देरी से
न उठने का ख्याल उभरता है,
मन में जो खालीपन का भाव पैदा हुआ था,
वह धीरे-धीरे भरने लगता है ,
जीवन पूर्ववत चलने लगता है।
अख़बार चोरी का अहसास
कम होने लगता है।
०३/०१/२०२५.
Written by
Joginder Singh
30
 
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