सोचता हूं , आदमी ने सदियों का दर्द पल भर में सह लिया। प्यार की बरसात में जी भरकर नहा लिया।
कैसे कहूं ? कैसे सहूं ? मन के भीतर व्याप्त अंतर्द्वंद्व अब तुम से! तुम्हें देख देख मन मैंने अपना बहला लिया। मन की खुशियों को फूलों की खुशबू में कुदरत ने समा लिया। भ्रमरों के संग भ्रमण कर जीवन के उतार चढ़ाव के मध्य अपने आप को कुछ हदतक भरमा लिया।
कैसे न कहूं ? तुम्हें यादों में बसा कर मैंने जिन्दगी के अकेलेपन से संवेदना के लम्हों को पा लिया। अपने होने का अहसास लुका छिपी का खेल खेलते हुए, उगते सूरज...! उठते धूएं...! उड़ते बादल सा होकर मन के अन्दर जगा लिया। कुछ खोया था अर्से पहले मैंने उसे आज अनायास पा लिया! इसे अपने जीवन का गीत बना कर गा लिया!!
कैसे कहूं ? संवेदना बिन कैसे जीऊं ? आज यह अपना सच किस से कहूं ?? १४/१०/२००६.