वैसे तो चेहरा अपने आप में होता है आदमी की पहचान। पर चेहरा विहीन दुनिया के मायाजाल में उलझते हुए , आज का आदमी है इस हद तक चाहवान कि मिले उसे इसी जीवन में उसकी अपनी खोई हुई पहचान।
जब मन में व्याप्त हो जाएं अमन के रंग और ढंग, तब तन की पहचान चेहरा क्यों रहना चाहेगा बदरंग ? यह प्रेम के रंग में रंगा हुआ क्यों नहीं इन्द्रधनुष सरीखा होना चाहेगा ? वह कैसे नहीं ? स्वाभाविक तौर पर प्रियतम की स्वप्निल उपस्थिति को इसी लौकिक जीवन में साकार करते हुए, तन और मन से प्रफुल्लित होकर, नाच नाच कर अपनी दीवानगी को अभिव्यक्त करना चाहेगा ! वह खुद को पाक-साफ रखने का कारण बनना चाहेगा !! कोई उसे इसे सिद्ध करने का मौका तो दे दे, और धोखा तो कतई न दे। तभी चेहरा अपनी चिर आकांक्षित पहचान को खोज पाएगा। क्या स्वार्थ का पुतला बना आज का आदमी इसे समझ पाएगा ? १४/१०/२००६.