मन के भीतर हद से अधिक यदि होने लगे कभी कभार उथल पुथल तो कैसे नहीं हो जाएगा आदमी शिथिल ? यकीनन वह महसूस करेगा खुद को निर्बल। मन के भीतर सोए हुए डर यदि अचानक एक एक कर जागने लगें , कैसे नहीं आदमी थोड़ा चलते ही लगे हांफने ? यकीनन वह खुद को बेकाबू कर लगेगा कांपने।
मन के भीतर बसा है संसार जो समय बीतने के साथ बनाता सबको अक्लमंद। यह उतार चढ़ाव भरी राहों से गुजारकर करता निर्द्वंद्व। इस संसार की अनुभूतियों से सम्बन्ध होते रहते दृढ़। मन के भीतर बढ़े जब द्वंद्व अंत समय को झट से ,अचानक अपने नज़दीक देख । आदमी जीवन से रचाना चाहता है संवेदना युक्त संवाद। हो चुका है वह भीतर से पस्त,इसलिए रह जाता तटस्थ। मन के भीतर दुविधा न बढ़े अन्तर्जगत अपनी आंतरिक हलचलों से निराश न करे। बल्कि वह सकारात्मक विचारों से मन को प्रबुद्ध करे। जीवन में डर सतत् घटें, इसके लिए मानव संयमी बने। ०९/०१/२००८.