कभी कभी आदमी के विवेक का मर जाना , बात बात पर उसके द्वारा बहाने बनाना , सारी हदें पार करते हुए अनैतिकता का बिगुल बजाना क्या आदमी को है शोभता ? इससे तो अच्छा है वह शर्म महसूस करे । इधर उधर बेशर्मी से कहकहे न लगाता फिरे । जीवन धारा में बहते हुए आदमी का सारी हदें पार कर जाना रहा है उसका शुगल पुराना। इसे अच्छे से समझता है यह ज़माना ।
कितना अच्छा हो , आदमी नैतिक मूल्यों के साथ खड़ा हो ।
नैतिकता के पथ पर मतवातर आदमी चलने का सदा चाहवान रहे । वह जीवन पथ पर चलते हुए सदैव नैतिकता का आधार निर्मित करे।
नैतिक जीवन को अपनाकर नीति चरित्र को श्रृंगार पाती है । अनैतिक आचरण करना यह आज के प्रखर मानुष को कतई शोभता नहीं है। फिर भी उसे कोई शुभ चिंतक और सहृदय रोकता क्यों नहीं है ? इसके लिए भी साहस चाहिए । जो किसी के पास नहीं , बेशक धन बल और बाहुबल भले पास हो , पर यदि पास स्वाभिमान नहीं , तो जीवन में संचित सब कुछ व्यर्थ ! पता नहीं कब बना पाएगा आदमी स्वयं को समर्थ ?
यह सब आदमी के ज़मीर के सो जाने से होता है घटित । इस असहज अवस्था में सब अट्टहास लगा सकते हैं । वे जीवन को विद्रूप बना सकते हैं। सब ठहाके लगा सकते हैं, पर नहीं सकते भूल से भी रो। सब को यह पढ़ाया गया है , गहरे तक यह अहसास कराया गया है , ...कि रोना बुजदिली है , और इस अहसास ने उन्हें भीगी बिल्ली बना कर रख दिया है। ऊपर ऊपर से वे शेर नज़र आते हैं, भीतर तक वे घबराए हुए हैं। इसके साथ ही भीतर तक वे स्व निर्मित भ्रम और कुहासे से घिरे हैं । उनके जीवन में अस्पष्टता घर कर गई है।
आज ज़माने भर को , है भली भांति विदित इन्सान और खुद की बुजदिली की बाबत ! इसलिए वे सब मिलकर उड़ाते हैं अच्छों अच्छों का उपहास। एक सच के खिलाफ़ बुनी साज़िश के तहत । उन्हें अपने बुजदिल होने का है क़दम क़दम पर अहसास। फिर कैसे न उड़ाएं ? ...अच्छे ही नहीं बुरे और अपनो तक का उपहास। वे हंसते हंसते, हंसाते हंसाते,समय को काट रहे हैं। समय उन्हें धीरे धीरे निरर्थकता के अहसास से मार रहा है। वे इस सच को देखते हैं, महसूस करते हैं, मगर कहेंगे कुछ नहीं। यार मार करने के तजुर्बे ने उन्हें काइयां और चालाक बना दिया है। बुजदिली के अहसास के साथ जीना सीखा दिया है। २७/१२/२०२४.