कितना अच्छा हो आदमी सदैव सच्चा बना रहे वह जीवन में अपने आदर्श के अनुरूप स्वयं को उतार चढ़ाव के बीच ढालता रहे।
कितना अच्छा हो अगर आदमी अपना जीवन सत्य और अहिंसा का अनुसरण करता हुआ जीवन जिंदादिली से गुजार पाए , अपनी चेतना को शुचिता सम्पन्न बनाकर दिव्यता के पथ प्रदर्शक के रूप में बदल पाए।
कितना अच्छा हो आदमी का चरित्र जीवन जीने के साथ साथ उत्तरोत्तर निखरता जाए। पर आदमी तो आदमी ठहरा , उसमें गुण अवगुण , अच्छाई और बुराई का होना, उतार चढ़ाव का आना एकदम स्वाभाविक है, बस अस्वाभाविक है तो उसके प्रियजनों द्वारा सताया जाना , उसके चरित्र को कुरेदते रहना , हर पल इस ताक में रहना कि कभी तो उसकी कमियां और कमजोरियां पता चलें फिर कैसे नहीं उसे पटखनी दे देते ? ...और खोल देते सब के सामने उसकी जीवन की बही।
कितना अच्छा हो आदमी की चाहतें पूरी होतीं रहें , उसे स्वार्थी परिवारजनों और मित्र मंडली की आवश्यकता कभी नहीं रहे , बल्कि उसका जीवन समय के प्रवाह के साथ साथ बहता रहे।
आदमी का चरित्र उत्तरोत्तर निखरे , ताकि स्वप्नों का इंद्रधनुष कभी न बिखरे । २८/१२/२०२४.