अच्छे खासे इज़्ज़तदर बेपर्दा हो जाते हैं, इसलिए हम बहुधा सच सुनकर सकपका जाते हैं, एक दूसरे की बगलें झांकने लग जाते हैं।
बेशक हम इतने भी बेशर्म नहीं हैं, कि जीवन भर चिकने घड़े बने रहें। हम भीतर ही भीतर मतवातर कराहते रहें।
हमें विदित है भली भांति कि कभी न कभी सभी को सच का सामना करना ही पड़ेगा , तभी जीवन स्वाभाविक गति से गंतव्य पथ पर आगे बढ़ पाएगा। जीवन सुख से भरपूर हो जाएगा। २८/१२/२०२४.