बहस करती है मन की शांति भंग यह मतवातर भटकाती है जीवन की ऊर्जा को इस हद तक कि भीतर से मजबूत शख़्स भी टूटना कर देता है शुरू और मन के दर्पण में नज़र आने लगती हैं खरोचें और दरारें ! इसलिए कहता हूँ सब से ... जितना हो सके, बचो बहस से । इससे पहले कि बहस उत्तरोत्तर तीखी और लम्बी हो जाए , यह ढलती शाम के सायों सी लंबी से लंबी हो जाए , किसी भी तरह से बहसने से बचा जाए , अपनी ऊर्जा और समय को सृजन की ओर मोड़ा जाए , अपने भीतर जीवन के सार्थक एहसासों को भरा जाए।
इससे पहले कि बात बढ़ जाए, अपने क़दम पीछे खींच लो , प्रतिद्वंद्वी से हार मानने का अभिनय ही कर लो ताकि असमय ही कालकवलित होने से बच पाओ। एक संभावित दुर्घटना से स्वयं को बचा जाओ। आप ही बताएं भला बहस से कोई जीता है कभी बल्कि उल्टा यह अहंकार को बढ़ा देती है भले हमें कुछ पल यह भ्रम पालने का मौका मिले कि मैं जीत गया, असल में आदमी हारता है, यह एक लत सरीखी है, एक बार बहस में जीतने के बाद आदमी किसी और से बहसने का मौका तलाशता है। सही मायने में यह बला है जो एक बार देह से चिपक गई तो इससे से पीछा छुड़ाना एकदम मुश्किल ! यह कभी कभी अचानक अप्रत्याशित अवांछित हादसे और घटनाक्रम की बन जाती है वज़ह जिससे आदमी भीतर ही भीतर कर लेता है खुद को बीमार । उसकी भले आदमी की जिन्दगी हो जाती है तबाह , जीवन धारा रुक और भटक जाती है जिंदादिली हो जाती मृत प्राय: यह बन जाती है जीते जी नरक जैसी। हमेशा तनी रहने वाली गर्दन झुकने को हो जाती है विवश। हरपल बहस का सैलाब सर्वस्व को तहस नहस कर जिजीविषा को बहा ले जाता है। यह मानव जीवन के सम्मुख अंकित कर देता है प्रश्नचिह्न ? बचो बहस से ,असमय के अज़ाब से। बचो बहस से , इसमें बहने से कभी कभी यह आदमी को एकदम अप्रासंगिक बनाकर कर देती है हाशिए से बाहर और घर जैसे शांत व सुरक्षित ठिकाने से। फिर कहीं मिलती नहीं कोई ठौर, मन को टिकाने और समझाने के लिए।