बेबस आदमी अक्सर अराजकता के माहौल में हो जाता है आसानी से धोखाधड़ी और ठगीठौरी का शिकार।
बार बार ठगे जाने पर अपनी बाबत गहराई से विचार करने के बाद मतवातर सोच विचार करने पर आदमी के अंदर स्वत : भर ही जाता है संदेह और अविश्वास ! वह कभी खुलकर नहीं ले पाता उच्छवास !!
आदमी धीरे धीरे अपने आसपास से कटता जाता है , वह चुप रहता हुआ , सबसे अलग-थलग पड़कर उत्तरोत्तर अकेला होता जाता है। संशय और संदेह के बीज अंतर्मन में भ्रम उत्पन्न कर देते हैं , जो भीतर तक असंतोष को बढ़ाते हैं।
यही नहीं कभी कभी आदमी अराजक सोच का समर्थन भी करने लगे जाता है। उसकी बुद्धि पर अविवेक हावी हो जाता है। वह अपने सभी कामों में जल्दबाजी करता है , जीवन में औंधे मुंह गिरता है। ऐसी मनोदशा में अधिक समय बिताते हुए वह खुद को लुंज-पुंज कर लेता है। वह क्रोधाग्नि से स्वयं को असंतुष्ट बना लेता है। वह कभी भी अपने भीतर को समझ नहीं पाता है। यही नहीं वह अन्याय सहता है, पर विरोध करने का हौसला चाहकर भी जुटा नहीं पाता है। और अंततः अचानक एक दिन धराशायी हो जाता है। ऐसा होने पर भी उसका आक्रोश कभी बाहर नहीं निकल पाता है। वह अपनी संततियो को भी किंकर्तव्यविमूढ़ बना देता है। वे भी अनिर्णय का दंश झेलने के निमित्त लावारिस हालत में तड़पते हुए अंदर ही अंदर घुटते रहते हैं। वे मतवातर यथास्थिति बनाए अशांत और बेचैनी से भरे भीतर तक कसमसाते रहते हैं।
आप ही बताइए कि लावारिस शख्स देश दुनिया में अराजकता नहीं फैलाएंगे , तो क्या वे सद्भावना का उजास अपने भीतर से कभी उदित होता देख पाएंगे ? ...या वे सब जीवन भर भटकते जाएंगे !! कभी तो वे अपने जीवन में सुधार लाएंगे !! कभी तो वे समर्थ और प्रबुद्ध नागरिक कहलाएंगे !!
आजकल भले ही आदमी अपनी बेबसी से जूझ रहा है , उसकी बेबस ज़िंदगी इतनी भी उबाऊ और टिकाऊ नहीं कि वह इस यथास्थिति को झेलती रहे। रह रह कर असंतोष की ज्वाला भीतर धधकती रहे। अविश्वास के दंश सहकर अविराम कराहती हुई अचानक अप्रत्याशित घटनाक्रम का शिकार बनकर हाशिए से हो जाए बाहर। आदमी और उसकी आदमियत को सिरे से नकार कर एक दम अप्रासंगिक बनाती हुई ! आदमी को अपनी ही नज़रों में गिराती हुई !! कहीं देखनी पड़ें आदमी की आंखें शर्मिंदगी से झुकीं हुईं !!
बेबसी का चाबुक कभी तो पीछे हटेगा, तभी आदमी जीवन पथ पर निर्विघ्न आगे बढ़ सकेगा। अपनी हसरतें पूरी कर सकेगा।
कभी तो यथास्थिति बदलेगी। व्यवस्था परिवर्तन की लहरों से टकराकर अपने घुटने टेकेगी। जीवन धरा फिर से स्वयं को उर्वर बनाएगी। जीवन धारा महकती इठलाती अपनी शोख हंसी बिखेरती देखी जाएगी। इस परिवर्तित परिस्थितियों में प्रतिकूलता विषमता तज कर आदमी के विकास के अनुकूल होकर जीवन धारा को स्वाभाविक परिणति तक पहुंचाएगी। सच ! ऐसे में बेबसी की दुर्गन्ध आदमी के भीतर से हटेगी।