अभी अभी पढ़ा है पत्रिका में प्रकाशित हुआ संपादकीय जिसके भीतर बच्चों को चोरी करने और उन से हाथ पांव तोड़ भीख मंगवाने, उन्हें निस्संतान दम्पत्तियों को सौंपने, उन मासूमों से अनैतिक और आपराधिक कृत्य करवाने का किया गया है ज़िक्र, इसे पढ़कर हुई फ़िक्र!
मुझे आया कलपते बिलखते मां-बाप और बच्चों का ध्यान। मैं हुआ परेशान!
क्या हमारी नैतिकता हो चुकी है अपाहिज और कलंकित कि समाज और शासन-प्रशासन व्यवस्था तनिक भी नहीं है इस बाबत चिंतित ? उन पर परिस्थितियों का बोझ है लदा हुआ, इस वज़ह से अदालतों में लंबित मामलों का है ढेर इधर-उधर बिखरे रिश्तों सरीखा है पड़ा हुआ। स्वार्थपरकता कहती सी लगती है, उसकी गूंज अनुगूंज सुन पड़ती है , पीड़ा को बढ़ाती हुई, ' फिर क्या हुआ?...सब ठीक-ठाक हो जाएगा।' मन में पैदा हुआ है एक ख्याल, पैदा कर देता है भीतर बवाल और सवाल , ' ख़ाक ठीक होगा देश समाज और दुनिया का हाल। जब तक कि सब लोग अपनी दिनचर्या और सोच नहीं सुधारते ? क्या प्रशासन और न्यायिक व्यवस्था और बच्चों की चोरी करने और करवाने वालों को सख़्त से सख़्त सजा नहीं दे सकते ?
मुझे अपने भाई वासुदेव का ध्यान आया था जो खुशकिस्मत था, अपनी सूझबूझ और बहादुरी से बच्चों को चुराने वाले गिरोह से बचकर सकुशल लौट पाया था, पर भीतर व्याप चुके इसके दुष्प्रभाव अब भी सालों बाद दुस्वप्न बनकर सताते होंगे।
मुझे अपने सुदूर मध्य भारत में भतीजे के अपहरण और हत्या होने का भी आया ध्यान, जो जीवन भर के लिए परिवार को असहनीय दुःख दे गया। क्या ऐसे दुखी परिवारों की पीड़ा को कोई दूर करेगा?
बच्चों को चुराने वाली इस मानसिकता के खिलाफ़ सभी को देर सवेर बुलन्द करनी होगी अपनी-अपनी आवाज़ तभी बच्चा चोरी का सिलसिला किसी हद तक रुक पायेगा। देश-समाज सुख-समृद्धि से रह रहे नज़र आएंगे। वरना देश दुनिया के घर घर में बच्चा - चोर उत्पात मचाते देखे जाएंगे। फिर भी क्या हम इसके दंश झेल पाएंगे ?