कोई चीख रात के अंधेरे में से उभरी है और अज्ञान का अंधेरा इसे कर गया है जज़्ब।
कोई , एक ओर चीख अंतर्मन के बियाबान में से उभरी है और व्यस्त सभ्यता इसे कर गई है नजरअंदाज।
कोई , और ज़्यादा चीखें धरा के साम्राज्य में से रह रह कर उभर रहीं हैं और अस्त व्यस्त दार्शनिकता ने इन चीखों को दे दिया है इनकी पहचान के निमित्त एक नाम "समानांतर चीखें" ।
क्या ये आप तक तमाम प्रतिकूल परिस्थितियों के बावजूद आप के पास गुहार लगा रहीं हैं ? श्रीमंत ! अपनी सामंतवादी सोच को विराम दो । उनके लिए कुछ सार्थक काम करो ताकि कहीं तो आज की आपाधापी के बीच अशांत मनों को सुख चैन और सुकून के अहसास मिलें । ये चीखें हमारे अपनों की कातर पुकार हो सकती हैं । कोई तो इन्हें सुने । इनके भीतर आशा और आत्मविश्वास जगे । १७/०७/१९९६ .