लोग सोचते हैं कि आपको सब कुछ पता है , आसपास का सब कुछ -- नहीं है आपकी आंखों से ओझल कुछ भी कहीं।
पर आप जानते हैं -- स्वयं को अच्छी तरह से , फलत: आप चुप रहते हैं , अपना सिर झुका कर हर क्षण,हर पल, चुपचाप चिंतन मनन करते रहते हैं। अपना सिर झुकाए हुए सोचते हैं ,निज से कहते हैं कि..., " कैसे कहूं अपना सच ! किस विधि रखूं अपने जीवन में प्राप्त निष्कर्ष जनता जनार्दन के सम्मुख। सतत् परिश्रम बना हुआ है उत्कृष्टता का केन्द्र और जीवन का आधार!" " इस के अतिरिक्त और नहीं कुछ मुझे विदित , दुनिया न खुद के बारे में । बहुत सा सच है अंधियारे में।"
आप कहते कुछ नहीं, आजकल सुनते भर हैं। आप कहें भी किस से ? सब समय की चक्की तले मतवातर पिस रहें।
कभी कभी आप सुनते भर नहीं , अविराम सोचते समझते हैं , भीतरी अंधेरे को उलीचते भर हैं । ताकि जीवन के सच का उजास जीवन में मिलता रहे। इससे जीवन - पथ प्रकाशित होता रहे। लोग सोचते हैं कि आपको सब पता है , आप सोचते हैं कि लोगों को सब पता है , सच्चाई यह है -- आप और भीड़ , दोनों लापता हैं, और आप सब कुछ कहे बिना अपने अपने ढंग से ढूंढते अपने घर का पता हैं ।