आज तुम्हारे मन की देहरी पर अपना आशा दीप जलाऊंगीं बाहर अनंत अधेरा है उस रोशनी की ओर कोई तो कदम बढाएगा जो तुम्हारे अन्तर्मन पर दस्तक देगा मुझे बंद अन्तर्मन की झीनी दरारों से एक रोशनी नजर आती है। कभी कोई मधुर गीत गाता है तो कभी दर्द के स्वर में गुनगुनाता है कभी कभी महीनों तक सन्नाटा पसरा रहता है। आज तुम्हारे मन की देहरी पर दीप जलाऊंगीं वहीं उस पसरे सन्नाटे में सिमट बैठ जाऊंगी एक दिन तो तुम योगी बन साधना पूरी कर आओगे इस संसार को अपने गीत सुना अमर हो जाओगे उन पदचिह्नों की माटी से अपने मस्तक पर तिलक सजाऊँगी