बेकार की बहस मन का करार लेती छीन यह कर देती सुख समृद्धि, धन संपदा को तहस नहस। अच्छा रहेगा बेकार की बहस से बचा जाए , सार्थक दिशा में आगे बढ़ा जाए। क्यों न बंधुवर! आज जीवन धारा को तर्कों की तुला पर तोलते हुए चंचल मन को मनमर्ज़ियां करने से रोकते हुए जीवन खुलकर जिया जाए और स्वयं को सार्थक कार्यों में लगाया जाए।
आज मन सुख समृद्धि का आकांक्षी है , क्यों न इसकी खातिर ज़िंदगी की किताब को सलीके से पढ़ा जाए और अपने को आकर्षण भरपूर बनाए रखने के निमित्त स्वयं को फिर से गढ़ा जाए , बेकार की बहस के पचड़े में फंसने से, जीवन को नरक तुल्य बनाने से खुद को बचाया जाए।
आज आदमी अपने को सत्कर्मों में लीन कर लें ताकि इसी जीवन में एक खुली खिड़की बनाई जाए, जिसके माध्यम से आदमी के भीतर जीवन सौंदर्य को निहारने के निमित्त उमंग तरंग जगाई जाए।
आओ,आज बेकार की बहस से बचा जाए। तन और मन को अशांत होने से बचाया जाए। जीवन धारा को स्वाभाविक परिणति तक पहुंचाया जाए। आदमी को अभिव्यक्ति सम्पन्नता से युक्त किया जाए ।
मित्रवर! बहस से बच सकता है तो बहसबाजी न ही कर। बहस से तन और मन के भीतर वाहियात डर कर जाते घर। १५/१२/२०२४.