अच्छा खासा आदमी था, रास्ता भटक गया। बहुत देर बाद मुंह में निवाला पाया था , गले में अटक गया ।
थोड़ी तकलीफ़ हुई , कुछ देर खांसी हुई , फिर सब कुछ शांत हुआ, अच्छा खासा आदमी परेशान हुआ। समय बीतते बीतते थोड़ा पानी पीने के बाद अटका निवाला पेट के भीतर ले जाने में सक्षम हुआ , तब कहीं जाकर कुछ आराम मिला। अपनी भटकन और छाती में जकड़न से थोड़ी राहत मिली, दर्द कुछ कम हुआ, धीरे-धीरे मन शांत हुआ, तन को भी सुख मिला। अपनी खाने पीने की जल्दबाजी से पहले पहल लगा कि अब जीवन में पूर्ण विराम लगा, जैसे मदारी का खेल खनखनाते सिक्कों को पाने के साथ बंद हुआ।
अच्छा खासा आदमी था ज़िंदगी को जुआ समझ कर खेल गया। मुझ कुछ पल के लिए जीवन रुक गया सा लगा, अपनी हार को स्वीकार करना पड़ा, इस बेबसी के अहसास के साथ बहुत देर बाद निवाला निगला गया था।
अपनी बर्बादी के इस मंजर को देख और महसूस कर निवाला गले में अटका रह गया था। सच! उस पल थूक गटक गया था , पर ठीक अगले ही पल भीतर मेरे शर्मिंदगी का अहसास भरा गया था। बाल बाल बचने का अहसास भीतर एक कीड़े सा कुलबुला रहा था। मैं बड़ी देर तक अशांत रहा था। १६/०६/२००७.