दैत्यों से अकेली लड़ सकती है देवी । उसे न समझो कमज़ोर। जब सभी ओर से दैत्य उस पर अपनी क्रूरता प्रदर्शित करते से टूट पड़ें , तब क्या वह बिना संघर्ष किए आत्मसमपर्ण कर दे ? आप ही बताइए क्या वह अबला कहलाती रहे ? अन्याय सहती रहे ? भीतर तक भयभीत रहे ? दैत्यों की ताकत से थर थर थर्राहट लिए रहे कांपती ... थर थर बाहर भीतर तक जाए डर । और समर्पण कर दे निज अस्तित्व को अत्याचारियों के सम्मुख । वह भी तो स्वाभिमानिनी है ! अपने हित अहित के बारे में कर सकती है सोच विचार , चिंतन मनन और मंथन तक। वह कर ले अपनी जीवन धारा को मैली ! कलंकित कर ले अपना उज्ज्वल वर्तमान! फिर कैसे रह पाएगा सुरक्षित आत्म सम्मान ?
वह अबला नहीं है। भीरू मानसिकता ने उसे वर्जनाओं की बेड़ियों में जकड़ कमज़ोर दिखाने की साजिशें रची हैं। आज वह अपने इर्द गिर्द व्याप्त दैत्यों को समाप्त करने में है सक्षम और समर्थ। बिना संघर्ष जीवनयापन करना व्यर्थ ! इसलिए वे सतत जीवन में कर रही हैं संघर्ष , जीवन में कई कई मोर्चों पर जूझती हुईं । वे चाहतीं हैं जीवन में उत्कर्ष!! वे सिद्ध करना चाहतीं हैं स्वयं को उत्कृष्ट!! उनकी जीवन दृष्टि है आज स्पष्ट!! भले ही यह क्षणिक जीवन जाए बिखर । यह क्षण भंगुर तन और मन भी चल पड़े बिखराव की राह पर !
देवी का आदिकालीन संघर्ष सदैव चलता रहता है सतत! बगैर परवाह किए विघ्न और बाधाओं के! प्रगति पथ पर बढ़ते जीवनोत्कर्ष के दौर में , रक्त बीज सरीखे दैत्यों का जन्मते रहना एकदम प्राकृतिक , सहज स्वाभाविक है। यह दैवीय संघर्ष युग युग से जारी है। १६/०६/२००७.