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जब
अचानक
क्रोध से
निकली
एक चिंगारी
बड़ी मेहनत से
श्रृंगारी जिन्दगी को
अंदर बाहर से
धधकाकर ,
आदमी की
अस्मिता को झुलसा दे
तब
आप ही बताइए
आदमी कहाँ जाए ?

मन के भीतर
असंतोष की ज्वालाएं
फूट पड़ें
अचानक
......
मन के भीतर की
कुढ़न और घुटन
बेकाबू होकर
मन के अंदर
रोक कर रखे संवेगों को
बरबस
आंखों के रास्ते
बाहर निकाल दें ...!

तब तुम ही बता दो
आदमी क्या करे?
वह कहाँ जाए ?

कभी कभी
यह जिंदगी
एक मरुभूमि के बीच
श्मशान भूमि की
कराने लगती है
प्रतीति ,
तब
रह जाती  
धरी धराई
सब प्रीति और नीति ।

ऐसे में
तुम्हीं बताओ
आदमी कहाँ जाए ?
क्या वह स्वयं के
भीतर सिमटता जाए ?

क्यों न वह !
मन में सहृदयता
और सदाशयता के
लौट आने तक
खुद के मन को समझा ले ।
यह दुर्दिन का दौर भी
जल्दी ही बीत जाएगा।
तब तक वह धैर्य धारण करे।
वह खुद को संभाल ले ।

बेशक आज
निज के अस्तित्व पर
मंडरा रहीं हैं काल की
काली काली बदलियां ,
ये भी समय बीतने के साथ
इधर उधर छिटक बिखर जाएंगी।
सूर्य की रश्मियां
फिर से अपना आभास
कराने लग जाएंगी।
बस तब तक
आदमी ठहर जाए ,
वह अपने में ठहराव लेकर आए ,
तो ही अच्छा।
वह दिख पड़े फ़िलहाल
एकदम
सीधा सादा और सच्चा।

संकट के समय
आदमी
कहीं न भागे ,
न ही चीखे चिल्लाए ,
वह खुद को शांत बनाए रखे,
मुसीबत के बादल
जिन्दगी के आकाश में
आते जाते रहते हैं ,
बस जिन्दगी बनी रहनी चाहिए।
आदमी की गर्दन
स्वाभिमान से तनी रहनी चाहिए।

१३/१२/२०२४.
Written by
Joginder Singh
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