कभी-कभी ज़िंदगी एक मेला कम झमेला ज्यादा लगती है , जहां मौज मस्ती बहुत मंहगी पड़ती है । कभी कभी जीवन में झमेला झूम झूम झूमकर झूमता हुआ एक मदमस्त शराबी बना हुआ आन खड़ा होता है और यह अचानक जीवन के बहुरंगी मेले में रंग में भंग डाल देता है , चटख रंगों को हाशिए में पटक देता है ।
सचमुच ही! ऐसे में मन नितांत क्लांत होकर उदास होता है , भीतर कहीं गहरे तक सन्न करता सा सन्नाटा पसर जाता है । जीवन की सम्मोहकता का असर मन के क्षितिज को धुंधलाता जाता है ।
जीवन में सुख, समृद्धि, सम्पन्नता का साया कहीं पीछे छूटता जाता है । मन के भीतर बेचैनी का ग्राफ उतार-चढ़ाव भरा होकर घटता, बढ़ता,बदलता रहता है । आदमी बोझ बने जीवन को सहता चला जाता है ।
झूम झूम झूमता हुआ झमेला इस जीवन के मेले में ठहराव लाकर यथास्थिति का भ्रम पैदा करता है। यह मन के भीतर संशय उत्पन्न कर हृदय पुष्प को धीरे-धीरे मुरझाकर कर देता है जड़ मूल से नष्ट-भ्रष्ट ।
आदमी जीवन धारा से कटकर इस अद्भुत मेले को झमेला मानने को हो जाता है विवश ! फीकी पड़ती जाती जीवन की कशिश !! आदमी अपने आप ही जीवन में अकेला पड़ता जाता है । जीवन यापन करना भी उसे एक झमेला लगने लगता है । जीवन पल प्रतिपल बोझिल लगने लग जाता है। उसे सुख चैन नहीं मिल पाता है।