Submit your work, meet writers and drop the ads. Become a member
1d
इन दिनों
चुप हूं।
जुबान अपना कर्म
भूल गई है।
उसको
नानाविध व्यंजन खाने ,
और खाकर चटखारे लगाने की
लग गई है लत!
फलत:
बद  से बद्तर
होती चली गई है हालत !!

इन दिनों
जुबान दिन रात
भूखी रहती है।
वह सोती है तो
भोजन के सपने देखती है ,
भजन को गई है भूल।

पता नहीं ,
कब चुभेगा उसे कोई शूल ?
कि वह लौटे, ढूंढ़ने अपना मूल।

इन दिनों
चुप हूं ।
चूंकि जुबान के हाथों
बिक चुका हूं ,
इसलिए
भीतर तक गूंगा हूं ।

०६/०३/२००८.
Written by
Joginder Singh
37
   dead poet
Please log in to view and add comments on poems