उसकी नज़र लगी कि जहर भूला , अपनी तासीर ज़िंदगी , एक अमृत कलश सरीखी आने लगती नज़र ।
काश ! उसकी नज़र सबको आए नज़र हर कोई चाहता की भूलभुलैया में खो जाए ! ज़िंदगी एक सतरंगी पींघ पर झूमने लग जाए !!
उसकी नज़र चाहत की राहत सरीखी हो जाए , आदमी प्रेम धुन गुनगुनाते हुए समाप्ति की ओर बढ़ता चला जाए । उसके चेहरे मोहरे पर कुछ न करने का मलाल कभी न आए नज़र ।
उसकी नज़र इश्क मुश्क की अनकही इबारत है जिसकी नींव पर हरेक निर्मित करना चाहता है , भव्यता की पायेदार इमारत । भले ही ज़िंदगी कुछ न करने की शिकायत करती आए नज़र ।
उसकी नज़र को किसी की नज़र न लगे कभी भी उसे महसूस न हो जीवन में कोई भी कमी कभी भी । उसकी नज़र का ज़हर पी लेंगे सभी कभी भी । अपने भीतर के ज़हर को भूलकर, तोड़ कर अपने समस्त सिद्धांत और उसूल ! २२/१२/२०१६.