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Dec 9
जो
भटक गए हैं
राह अपनी से
वे सब
अपने भीतर
असंख्य पीड़ाएं समेटे हुए हैं ,
वे मेरे अपने ही बंधु बांधव हैं ,
मैं उन्हें कभी
तिरस्कृत नहीं कर पाऊंगा !
मैं उन्हें कभी
उपेक्षित नहीं रहने देना चाहूंगा !
उनकी आंखों में
रहते आए
सभ्य समाज में विचरकर
और अनगिनत कष्ट सहकर
दिन दूनी रात चौगुनी
तरक्की करने के सपने हैं ।

जो
भटक गए हैं
राह अपनी से
वे सब लौटेंगे
अपने घरों को...एक दिन ज़रूर
अचानक से
यथार्थ के भीतर झांकने की गर्ज़ से ,
वे कब तक भागेंगे अपने फ़र्ज़ से ,
आखिर कब तक ?
उन्हें लड़ना होगा
ग़रीबी, बेरोज़गारी के मर्ज़ से ।
वे कब तक
यायावर बने रहेंगे ?
भुखमरी को झेलते झेलते
कब तक भटकते रहेंगे ?
यह ठीक है कि
वे अपनी अपनी पीड़ाएं
सहने के लिए मजबूर हैं ।
वे कतई नहीं
कहलाना चाहते गए गुज़रे
भला वे कभी ज़िन्दगी के
कटु यथार्थ से
रह सकते दूर हैं !
भले ही वे
सदैव बने  रहे मजदूर हैं।
भला वे कब तक
रह सकते अपने सपनों से दूर हैं ।
उन्हें कब तक
बंधनों में रखा जा सकता है ?
दीन हीन मजबूर बना कर !
आखिरकार थक-हारकर
एक दिन
उन्हें अपने घरों की ओर
लौटना ही होगा ।
सभ्य समाज को
उन्हें उनकी अस्मिता से
जोड़ना ही होगा।

१६/१२/२०१६.
Written by
Joginder Singh
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