जो भटक गए हैं राह अपनी से वे सब अपने भीतर असंख्य पीड़ाएं समेटे हुए हैं , वे मेरे अपने ही बंधु बांधव हैं , मैं उन्हें कभी तिरस्कृत नहीं कर पाऊंगा ! मैं उन्हें कभी उपेक्षित नहीं रहने देना चाहूंगा ! उनकी आंखों में रहते आए सभ्य समाज में विचरकर और अनगिनत कष्ट सहकर दिन दूनी रात चौगुनी तरक्की करने के सपने हैं ।
जो भटक गए हैं राह अपनी से वे सब लौटेंगे अपने घरों को...एक दिन ज़रूर अचानक से यथार्थ के भीतर झांकने की गर्ज़ से , वे कब तक भागेंगे अपने फ़र्ज़ से , आखिर कब तक ? उन्हें लड़ना होगा ग़रीबी, बेरोज़गारी के मर्ज़ से । वे कब तक यायावर बने रहेंगे ? भुखमरी को झेलते झेलते कब तक भटकते रहेंगे ? यह ठीक है कि वे अपनी अपनी पीड़ाएं सहने के लिए मजबूर हैं । वे कतई नहीं कहलाना चाहते गए गुज़रे भला वे कभी ज़िन्दगी के कटु यथार्थ से रह सकते दूर हैं ! भले ही वे सदैव बने रहे मजदूर हैं। भला वे कब तक रह सकते अपने सपनों से दूर हैं । उन्हें कब तक बंधनों में रखा जा सकता है ? दीन हीन मजबूर बना कर ! आखिरकार थक-हारकर एक दिन उन्हें अपने घरों की ओर लौटना ही होगा । सभ्य समाज को उन्हें उनकी अस्मिता से जोड़ना ही होगा।