आज किस से रखूं आस कि भूख लगने पर वह डालेगा घास मेरे सम्मुख ही नहीं समय आने पर खुद के सम्मुख भी...?
सुना है -- सच्चाई छिपती नहीं ! ज़िंदगी डरती नहीं !!
वह सतत अस्तित्व में रहेगी भले ही मोहरे जाएं बदल ! समय के महारथी तक जाएं पिट ! बेबसी के आलम में वे हाथ मलते आएं नज़र ! वे पांव पटकते जाएं ग़र्क !!
आज किस से रखूं आस कि प्यास लगने पर रखेगा कोई मेरे सम्मुख पानी मेरे आगे ही नहीं , खुद के आगे भी...?
देखा महसूसा है -- असंतुष्टि के दौर में तृप्ति कभी मिलती नहीं , तृषा कभी मिटती नहीं , तृष्णा कभी संतुष्ट होगी नहीं ! आदमी खुद को कभी तो समझे ज़रूर ताकि तोड़ सके अपने दुश्मन का गुरूर आदमी का दुश्मन कोई ग़ैर नहीं खुद उसका हमसाया है , यह भी समय की माया है। ......... क्यों कि हम तुम बने रहते , मनचले होकर , गधे हैं ! जब तक कोई हम पर चाबुक फटकारता नहीं , भला हम सब कभी सधे हैं ! क़दम क़दम पर जिद्दी बनकर रहते अड़े और खड़े हैं कभी न बदलने की ज़िद्द का दंभ पाले हुए।