कभी कभी जीवन के मोह में पड़कर अनियंत्रित हो जाता हूं , अपने आप पर काबू खोकर , अराजक होकर , एक भंवर में खो सा जाता हूं और खुद की निगाहों में , एक कायर लगने लगता हूं , ऐसे में एक हूक सी उठती है हृदय से कुछ न कर पाने की , अच्छी खासी ज़िंदगी के बोझ बन जाने की , खुद को न समझ पाने की ।
अचानक अप्रत्याशित उपेक्षित अनपेक्षित घटनाक्रम की करने लगता हूं इंतज़ार , कभी तो पड़ेगी समय की गर्द से सनी मैली हुई देह पर चेतना के बादल से निस्सृत कोई बौछार मन की मैल धोती हुई , जीवन की मलिनता को निर्मल करती हुई। मन के भीतर से कभी कभी सुन पड़ती है अंतर्मन की आवाज़ जो रह रहकर अंतर्मंथन की प्रेरणा देती है, स्वयं से अंतर्साक्षात्कार के लिए करती है धीरे धीरे तैयार। स्वयं पर नियंत्रण रखने को कहती है। यह अंतर्ध्वनि जीवन पथ सतत् प्रशस्त होते रहने का देती है आश्वासन। फिर यह अचानक से अंतर्ध्यान हो जाती है और वैयक्तिक सोच को ज़मीनी हक़ीक़त की सच्चाई से जोड़ जाती है। सच! इस समय इंसान को अपने जीवन की अर्थवत्ता समझ में आ जाती है। उसकी समझ यकायक बढ़ जाती है। ०९/१२/२०२४.