जो कभी सोचा न था। वो ही क्यों हो जाता है घटित? आदमी ऐसे में क्या करे? खुशी का इज़हार करे, या फिर भीतर तनाव भरे ? जो कभी सोचा भी न था, वो भी मेरे पास मौजूद था। फिर भी मैं उदास था , दिल का करार नदारद था। आदमी मैं होशियार न था। जीवन में बच्चा बना खेल खेलता रहा। खिलौने बटोरता रहा। रूठ कर इन्हें तोड़ता रहा । कुछ खो जाने की कसक से मतवातर रोता ही रहा। साथ साथ सोचता भी रहा। जो कभी सोचा न था। वो सब मेरे साथ घटा। मैं टुकड़ों में बंटता रहा। ऐसा मेरे साथ क्यों हुआ ? ऐसा सब के साथ क्यों , होता रहा है हर पल पल ! पास के आदमी दूर लगें! दूर के आदमी एकदम पास! जो कभी सोचा न था। वो जीवन में घटता है। यह आगे ही आगे बढ़ता है। कभी न रुकने के लिए! जी भर कर जीने के लिए!! अब सब यहां महत्वाकांक्षा लिए भटक रहें हैं, सुख को तरस रहे हैं। जीवन बढ़ रहा है अपनी गति से। कोई विरला यहां काम करता सहज मति से। यही जीवन का बंधन है। इससे छूटे नहीं कि लगे , सुन रहा कोई अनाम यहां क्रंदन ही क्रंदन की कर्कश ध्वनियां प्रतिध्वनियां पल ,पल। कर रहीं बेचैन पल प्रति पल स्व को। फिर भी जीवन बदल रहा है प्रति पल , अपने रंग ढंग क्षण श्रण , धूप और छाया के संग खेल,खेल कर यह क्षणिक व प्यार भरा जीवन एक अनोखा बंधन ही तो है। २८/१०/२००७.