बेशक कोयल सुरीला कूकती है। मुझे गाने को उकसाती है।
मैं भी मूर्ख हूं । बहकाई में जल्दी आ जाता हूं। सो कुछ गाता हूं,... कांव! कांव!! कांव!!! तारों की छांव में मैं मैना अंडे ढूंढता हूं। कांव! कांव!! कांव !!! लगाऊं मैं दांव! कांव!कांव!! कांव!!! (घर के) श्रोताओं को मेरा बेसुरापन अखरता है। इसे बखूबी समझता हूं। पर क्या करूं? आदत से मजबूर हूं। उनके टोकने पर सकपका जाता हूं। कभी कभी यह भी सोचता हूं कि काश ! मैं कोयल सा कूक पाऊं। वह कितना अच्छा गाती है। मन को बड़ा लुभाती है । वह कभी कभार कौए को , उस को खुद के जानने बूझने के बावजूद मूर्ख बना जाती है।
यह बात नहीं कि कोयल कौए की चाहत को न समझती हो, पर यह सच है कि वसंत ऋतु में कौवा यदि कोयल से गाने की करेगा होड़ तो कोयल के साथ-साथ दुनिया भी हंसेंगी तो सही ।
वह यदि तानसेन बनना चाहेगा, तो खिल्ली तो उड़ेगी ही। कौआ मूर्ख बनेगा सही।
आप मुझे बताना जरूर। कोयल कौए को बूद्धू बना कर क्या सोचती होगी? और कौआ कैसा महसूसता होगा, भद्दे तरीके से पिट जाने के बाद ? क्या कोयल भी कभी कहती होगी, 'आया स्वाद।'
बेशक कोयल सुरीला गाती है। कभी-कभी कौवे को गाने के लिए उकसाती है। बेचारा कौवा मान भी जाता है। ऐसा करके वह मुंह की खाता है। कौआ इसे खुले मन से स्वीकारता भी है। कौआ हमेशा छला जाता है। भले ही गाना गाने की बात हो या फिर कौए के द्वारा अपने घौंसले में किसी और के अंडे सेने जैसा काम हो। भले यह लगे हमें एक मजाक हो। है यह कुदरत में घटने वाला एक स्वाभाविक क्रिया कलाप ही। हर बार ग़लती करने के बाद करनी पड़ती अपनी गलती स्वीकार जी। माननी पड़ती अपनी हार जी। १६/०७/२००८.