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Dec 1
'शब्द जाल '
बहुत बार
साहित्य के समंदर में
तुमने फैंके हैं , मछुआरे !

कभी कविता के रूप में ,
तो कभी कथा के रंग में ,
निज की कुंठाओं को ढाल ।

अब तू न ही बुन
कोई मिथ्या शब्द जाल ,
इससे नहीं होगा कमाल
बल्कि तू जितना डर कर भागेगा ,
उतना ही अंतर्घट का वासी
तुम्हारा दोस्त तुम्हें डांटेगा ।

अब
अच्छा रहेगा
तुम स्वयं से
संवाद स्थापित करो ।
यह नहीं कि हर पल
उल्टा सीधा , आड़ी तिरछी
लकीरों वाला
कोई शब्द चित्र
जनता जनार्दन के
सम्मुख प्रस्तुत करो ।

तुम समझ लो कि
जन अब इतना बुद्धू भी नहीं रहा कि
तुम्हारे ख्याली पुलावों को
न समझता हो ,
और वह न ही  
शब्दजाल के झांसे में
आनेवाली
कोई मछ्ली है।'
ऐसा मुझसे चेतना ने कहा
और यह सुनकर
मैं चुप की नींद सो गया।
अपने को जागृत
रखने की दुविधा से ,
लड़ने की कोशिश में ,
मैं एक कछुआ सरीखा होकर
निज के खोल में सिमट कर रह गया था।
निज को सुरक्षित महसूस करना चाहता था।

मैं समय धारा के संग बह गया था।
बहुत कुछ अनकहा सह गया था।

  १४/१०/२००७.
Written by
Joginder Singh
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