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Dec 1
कैसे कहूं तुमसे ? , दोस्त!
अब कुछ याद नहीं रहता।
याद दिलाने पर
भीतर
बुढ़ाते जाने का अहसास
सर्प दंश सा होकर
अंतर्मन को छलनी है कर जाता!!


अजब विडंबना है!
निज पर चोट करते
भीतरी कमियों को इंगित करते
कटु कसैले मर्म भेदी शब्द
कभी भुला नहीं पाया।
भले ही यह अहसास
कभी-कभी रुला है जाता।


सोचता हूं ...
स्मृति विस्मृति के संग
जीवन के बियावान जंगल में
भटकते जाना
आदमी की है
एक विडंबना भर ।

आदमी भी क्या करें?
जीवन यात्रा के दौरान
पीछे छूट जाते बचपन के घर ,
वर्तमान के ठिकाने
तो लगते हैं सराय भर !
भले ही हम सब
अपनी सुविधा की खातिर
इन्हें  कहें घर।

२९/१०/२००९.
Written by
Joginder Singh
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