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Nov 30
दीप ऐसा मैं !
मन के भीतर
जला पाऊं
कि खुद को समय रहते
जगा पाऊं मैं !
मुखौटा पहने लोगों की
दुनिया में रहते हुए ,
मन के अंधेरे,
और आसपास के
छल प्रपंच से
बच पाऊं ‌मैं !
नकारात्मकता को
सहजता से
त्याग पाऊं मैं !


दीप ऐसा
यशस्वी
बन पाऊं मैं
कि छेद कर  
छद्म आवरण
दुनिया भर के , मैं !
पार कुहासे और धुंध के
देख पाऊं मैं !
जीवन के छद्म रूपों और मुद्राओं को
सहजता से छोड़ कर
अपने भीतर दीप
जला पाऊं मैं !
कृत्रिमता का आदी यह तन और मन
अपनी इस मिथ्या की खामोशी को  त्याग कर
लगाने लगे अट्टहास,
कराने लगे
अपनी उपस्थिति का अहसास!
काश! तन और मन से
कुंठा ‌की मैल
धो पाऊं मैं !


दीप ऐसे जलें
मेरे भीतर और आसपास ,
अस्पष्ट होती दुनिया का
सही स्वरूप
स्पष्ट ‌स्पष्ट
समझ पाऊं मैं !
जिसकी रोशनी में
स्व -सत्य के
रूबरू होकर
बनूं मैं सक्षम
इस हद तक
कि स्व पीड़ा और ‌पर पीड़ा की
मरहम ढूंढ पाऊं  मैं!
अपना खोया आकाश छू पाऊं ,मैं !!

८/११/२००४.
Written by
Joginder Singh
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   Vanita vats
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