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Nov 2024
बेघर को
यदि
घर का
तुम दिखाओगे सपना
तो उसे कैसे नहीं
लगेगा अच्छा?
वह कैसे नहीं,
समझेगा तुम्हें अपना?
परंतु
आजकल
घर के बाशिंदों को
बेघर करने की
रची जा रही हैं साजिशें,
तो किसे अच्छा लगेगा ?
सच!
ऐसे में
भीतर उठती है
पीड़ा, बेचैनी,दर्द,कसक।
इन्सान होने की ठसक क्या!
सब कुछ मिट्टी में मिलता लगता है।
सब कुछ तहस नहस होता लगता है।
कभी कभी रोने का मन करता है,
परंतु दुनिया की निर्मम हंसी से डर लगता है।


मन मनन चिंतन छोड़ कर
करता है महसूस
वह घड़ी रही होगी मनहूस
जब किसी उत्पाती ने
दी थी आधी रात घर की देहरी पर दस्तक
और कर दिया था हम सब को
बेघर और अकेला।
दे दी थी भटकन सभी को।
बस! तभी से है मेरा मन आशंकित।
मुझे हर समय एक दुस्वप्न
घर की देहरी पर दस्तक देता लगता है।
मैं भीतर तक खुद को हिला और डरा पाता हूं।
इस भरी पूरी दुनिया में खुद को अकेला पाता हूं।
मुझे कहीं कोई ठौर ठिकाना नहीं मिलेगा,
बस इसी सोच से पल पल चिंतित रहता हूं।


आजकल मैं एक यतीम हुआ सा
सतत् भटकता हुआ आवारा बना घूमता हूं।
मन मेरा बेघर है ।
उसके भीतर बिछुड़न का डर  कर गया घर है।
अतः अंत के आतंक से भटक रहा गली गली डगर डगर है।
०२/०१/२०१२.
Written by
Joginder Singh
24
 
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