आदमी जो नहीं है, वह वैसा होने का दिखावा करता है , बस खुद से छलावा करता है। इस सब को मैं नहीं समझता हूं अच्छा। क्या ऐसा करने से वह रह पाएगा सच्चा ? यह तो है बस है अपने आप से बोलना झूठ। कदम कदम पर पीना ज़हर और अपमान की घूट। साथ ही है यह जाने अनजाने अपने हाथों ही अपने पर कतरना भी है। स्वयं को अनुभूतियों के आसमान में परवाज़ भरने से रोकना भी है।
आज आदमी ने पाल ली है यह खुशफहमी, कोई उसकी असलियत कभी जानेगा नहीं। पर नहीं जानता वह बेचारा। दूसरे भी उसकी तरह चेहरा छुपाए हैं, एक मुखौटा चेहरे पर लगाए हैं। उनसे चेहरा छुपाना मुश्किल है, नहीं समझता इसे, कम अक्ल है। सब यहां, मनोरंजन कर रहा है, जैसा कुछ सोच हरदम मुस्कुराते रहते हैं! दुनिया के हमाम में नंगे बने रहते हैं!!
अब आदमी कतई न करे कोई लोक दिखावा। खुद को च छलने से अच्छा है , वह देखा करें अब , समय की धूप में अपना परछावा!
आजकल अपना साया ही बेहतर है, कम से कम सुख दुःख में साथ देता है, तपती धूप के दौर में आदमी जैसा है, उसे वैसे ही दिखाया करता है ।
आदमी जैसे ही अपना परछावा भूल आईने से गुफ्तगू करता है, आईने में अपना मोहक रूप देख होता है प्रसन्न। आईने को एक शरारत सूझी है और वह आदमी को उसके रंग ढंग दिखला , उसे सच से अवगत करा कर देता है सन्न ! ऐसे समय में आदमी मतवातर आईने से शर्माता है। वह बीच रास्ते हक्का-बक्का सा आता है नज़र। यही है आदमी की वास्तविकता का मंज़र।
आदमी, जो नहीं है, वह वैसा होने का दिखावा आखिरकार क्यों करता है? अगर उसे होना पड़ता है अपमानित, इस वज़ह से ; तो आज का शातिर आदमी झट से मांग लेता है माफी और इसे अपनी भूल ठहरा देता है।
जब कभी समय देवता उसे अचानक बस यूं ही दिखा देते हैं ,हकीकत का आईना, तो आदमी बाहर भीतर तक कर लेता है मौन धारण। ऐसा आदमी नहीं होता कतई साधारण । वह कभी किसी की पकड़ में नहीं आता है, बल्कि जनसाधारण के बीच , वह नीच! पहुंचा हुआ आदमी कहलाता है ! सभी के लिए आदर का पात्र यानी कि आदरणीय बन जाता है। और एक दिन समाज और सरकार से पुरस्कृत हो जाता है। ऐसे में सच सचमुच ही तिरस्कृत हो जाता है ।