तारीफ की चाशनी सरीखे तार से बंधी है यहां हर एक की जिंदगी।
तुम हो कि ... ना चाह कर भी बंधे हो सिद्धांत के खूंटे से! चाहकर भी तारीफ़ के पुल बांधने से कतराते हो!! पल पल कसमसाते हो!!!
तारीफ़ कर तारीफ़ सुन नहीं रहेगा कभी भी गुमसुम ! यह था ग़ैबी हुक्म !!
सो उसे मानता हूं । तारीफ़ करता हूं, जाने अनजाने रीतों में, गए बीतों में खुशियां भरता हूं। जीव जीव के भीतर के डर हरता हूं । तार तार हो चुके दिलों से जुड़ता हूं , छोटे-छोटे क़दम रख आगे आगे बढ़ता हूं ।
क्या तुम मेरा अनुसरण नहीं करोगे ? स्वयं को तारीफ़ का पात्र सिद्ध नहीं करोगे ? या फिर स्व निर्मित आतंक के गड़बड़ झाले से त्रस्त रहोगे ? खुद की अस्मिता को तार तार करते इधर-उधर कराहते फिरोगे ? उद्देश्यविहीन से ! तारीफ के जादुई तिलिस्म से डरे डरे !!
दोस्त ! तारीफ़ का तिलिस्म वर!! एक नई तारीख का इंतज़ार निरंतर कर !!