आज का आदमी दौड़ धूप में उलझ कल और कल के बीच फंसा हुआ सा लगा रहा है अस्तित्व अपने पर ग्रहण।
आज की दुनिया में नाकामयाब को लगता है हर कोई एक जालसाज़! कुटिल व दग़ाबाज़!!
वज़ह.... आज के आदमी की धड़कन , कलयुग के दौर में हो चुकी है एक भटकन भर, पल पल आज आदमी रहा मर।
आज आदमी अपने आप में एक मशीन हो गया है। 'कल' युग में उसका सुख, चैन,करार सर्वस्व भेड़ चाल के कारण कहीं खो गया है।
ख़ुद को न समझ पाना उसके सम्मुख आज एक संगीन जुर्म सा हो गया है।
जिस दिन वह समय की नदिया की कल कल से खुद को जोड़ेगा, वह उस दिन दुर्दिनों के दौर में भी सुख,सुविधा, ऐश्वर्य को भोगेगा। फिर कभी नहीं वह लोभ लालच का शिकार होकर , अधिक देर तक अंधी दौड़ का अनुसरण कर भागेगा।