अभी सपनों की स्याही उत्तरी भी न थी कि खुल गई नींद ।
फिर क्या था चाहकर भी जल्दी सो न पाया , मैं खुद को जागने वालों , जगाने वाले दोस्तों की सोहबत में पाया । सच ! जीवन का लुत्फ़ आया । अपने इस जीवन को एक सपन राग सा पाया । अपने इर्द गिर्द की दुनिया को मायाजाल में उलझते पाया ।
वैसे दुनिया यदि जाग रही हो तो उतार देती है जल्दी ही सपनों की खुमारी से स्याही ! चहुं ओर दिखने लगती तबाही !!
दुनिया जगाती रहे तो... कर देती है हमें सतर्क , फिर उसके आगे नहीं चलते कुतर्क । यह दुनिया तर्क वितर्क से चालित है । वह सपने लेने वालों को ज़िंदगी की हक़ीक़त के रूबरू कराती है । दुनिया सभी में कुछ करने की जुस्तजू जगाती है । वह आदमी को, आदमी बनाती है । उसमें संघर्ष की खातिर जोश भर जाती है। यही नहीं दुनिया कभी-कभी आदमी के सपनों में रंग भर जाती है ।