Submit your work, meet writers and drop the ads. Become a member
Nov 2024
अभी
सपनों की स्याही
उत्तरी भी न थी
कि खुल गई नींद ।


फिर क्या था
चाहकर भी
जल्दी सो न पाया ,
मैं खुद को
जागने वालों ,
जगाने वाले दोस्तों की
सोहबत में पाया ।
सच !  जीवन का लुत्फ़ आया ।
अपने इस जीवन को
एक सपन राग सा पाया ।
अपने इर्द गिर्द की
दुनिया को
मायाजाल में  उलझते पाया ।

वैसे दुनिया
यदि जाग रही हो
तो उतार देती है
जल्दी ही
सपनों की खुमारी से स्याही !
चहुं ओर दिखने लगती तबाही !!

दुनिया जगाती रहे तो...
कर देती है हमें सतर्क ,
फिर उसके आगे नहीं चलते कुतर्क ।
यह दुनिया तर्क वितर्क से चालित है ।
वह सपने लेने वालों को
ज़िंदगी की हक़ीक़त के
रूबरू कराती है ।
दुनिया सभी में
कुछ करने की जुस्तजू जगाती है ।
वह आदमी को, आदमी बनाती है ।
उसमें संघर्ष की खातिर जोश भर जाती है।
यही नहीं दुनिया कभी-कभी
आदमी के सपनों में रंग भर जाती है ।

१२/०२/२०१७.
Written by
Joginder Singh
33
 
Please log in to view and add comments on poems