कहीं गहरे तक उदास हूँ , भीतर अंधेरा पसरा है। तुम चुपके से एक दिया देह देहरी पर रख ही दो। मन भीतर उजास भरो । मैल धोकर निर्मल करो। कभी कभार दो सहला। जीवन को दो सजा। जीवंतता का दो अहसास। अब बस सब तुम्हें रहे देख। कनखी से देखो, बेशक रहो चुप। तुम बस सबब बनो, नाराज़ ज़रा न हो। मुक्त नदी सी बहो, भीतरी उदासी हरो। यह सब मन कहे, अब अन्याय कौन सहे? जो जीवन तुम्हारे अंदर, मुक्त नदी बनने को कहे।