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Nov 2024
कभी-कभी
समय
यात्री से
सांझा करता है
अपने अनुभव
यात्री के ख़्वाब में आकर।

कहता है वह उससे,
" नपे तुले सधे कदमों से
किया जाना चाहिए तय
यात्रा पथ ,
बने रहकर अथक
बगैर किसी वैर भाव के
एक सैर की तरह ,
जीवन पथ पर
खुद को आगे बढ़ाकर
अपने क़दमों में गति लाकर
स्वयं के भीतर
उत्साह और जोश जगाकर ।


यात्री
सदैव आगे बढ़ें ,
अपनी पथ पर
सजग और सतर्क होकर ।
वे सतत् चलते रहें ,
भीतर अपने
मोक्ष और मुक्ति की
चाहत के भाव जगा कर ।
वे अपने लक्ष्य तक
पहुंचने की खातिर
मतवातर चलते रहें ।
जीवन पथ की राह
कभी नहीं होती आसान,
इस मार्ग में
आते हैं कई
उतार चढ़ाव।
कभी राह होती है
सीधी सपाट
और
कभी एकदम
उबड़ खाबड़ ,
इस पथ पर
मिलते हैं कभी
सर्पिल मोड़।
यात्रा यदि निर्विघ्न
करनी हो संपन्न ,
तो यात्री रखें ,
स्वयं को तटस्थ।
एकदम मोह माया से
हो जाएं निर्लिप्त।"

यात्री को हुआ
ऐसा कुछ प्रतीत,
मानो समय
कहना चाहता हो
उससे कि वह
चले अपने यात्रा पथ पर ,
सोच संभलकर।
नपे तुले सधे कदमों से
वह बिना रुके, चलता चले।
जब तक मंज़िल न मिले।

यात्री मन के भीतर
यह सोच रहा था कि
समय, जिसे ईश्वर भी कहते हैं।
सब पर बहा जा रहा है ,
काल का बहाव
सभी को
अपनी भीतर बहाकर
ले जा रहा है,
उन्हें उनकी नियति तक
चुपचाप लेकर जा रहा है।

सो वह आगे बढ़ता रहेगा,
सुबह ,दोपहर ,शाम
और यहां तक
रात्रि को
सोने से पहले
परमेश्वर को याद करता रहेगा।
यात्रा की स्मृतियों के दीपक को
अपनी चेतना में जाजवल्यमान रखकर।


यात्री को यह भी लगा कि
कभी-कभी खुद समय भी
उसके सम्मुख
एक बाधा बन कर
खड़ा हो जाता है।
कभी यह अनुकूल
तो कभी यह
प्रतिकूल हो जाता है।
ऐसे में आदमी
अपना मूल भूल जाता है।
कभी-कभी
पथिक
बगैर ध्यान दिए चलने से
घायल भी हो जाता है।

उसे  हर समय यात्रा पथ पर
स्वयं को आगे बढ़ाना है।
कभी-कभी
यह यात्रा पथ
अति मुश्किल लगने लग जाता है,
मन के भीतर
दुःख ,पीड़ा ,दर्द की
लहरें उठने लगती हैं ,
जो यात्रा पथ में
बाधाएं
पैदा करती हैं।


समय
पथिक की दुविधा को
झट से समझ गया
और
ऐसे में
तत्क्षण
उसने यात्री को
संबोधित कर कहा,
"अपनों या परायों के संग
या फिर उनके बगैर
रहकर निस्संग
जीवन धारा के साथ बह।
अन्याय, पीड़ा ,उत्पीड़न को
सतत् सहते सहते, सभी को
तय करना होता है , जीवन पथ।"

समय के मुखारविंद से
ये दिशा निर्देश सुनकर ,
समय के रूबरू होकर ,
पथिक ने किया यह विचार कि
' अब मैं चलूंगा निरंतर
अपने जीवन पथ पर ,संभल कर।'


पथिक समय के समानांतर
अपने क़दम बढ़ाकर
चल पड़ा अपनी मंजिल की ओर।
उसे लगा यह जीवन है ,
एक अद्भुत संघर्ष कथा ,
जहां व्याप्त है मानवीय व्यथा।
नपे तुले सधे कदमों के बल पर,
लड़ा जाना चाहिए ,जीवन रण यहां पर ।

यात्री अपने पथ पर चलते-चलते
कर रहा था विचार कि अब उसे सजगता से
अपनी राह चलना होगा, हताशा निराशा को कुचलना होगा।
तभी वह अपनी मंज़िल तक निर्विघ्न पहुंच पाएगा।
अपनी यात्रा सुख पूर्वक सहजता से संपन्न कर पाएगा।


समय करना चाहता है,
जीवन पथ पर चल रहे यात्रियों को आगाह,
अपनी यात्रा करते समय ,वे हों न कभी ,बेपरवाह,
समय का दरिया , महाकाल के विशालकाय समंदर में
करता रहा है अपनी को लीन,
मानव समझे आज, उसके ,
स्वयं के कारण, कभी न बाधित हो,
समय चेतना का प्रवाह।

समय की नदी से ही गुज़र कर,
इंसान बनते प्रबुद्ध, शुद्ध, एकदम खालिस जी ।
फिर ही हो सकते हैं वे, काल संबंधी चिंतन में शामिल जी।

अब समय नपे तुले सधे क़दम आगे बढ़ाकर।
संघर्ष की ज्वालाओं को,
सोए हुओं में जगा कर ।
तोड़ेगा अंधविश्वासों के बंधन,
ताकि रुके क्रंदन जीवन पथ पर।
समय अपना राग पथिकों को सुनाकर,
कर सके मानवीय जिजीविषा का अभिनंदन।

०९/१२/२००८.
Written by
Joginder Singh
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