बहुत बार
नौकर होने का आतंक
जाने अनजाने
चेतन पर छाया है ,
जिसने अंदर बाहर
रह रहकर तड़पाया है ।
बहुत बार
अब और अधिक समय
नौकरी न करने के ख़्याल ने ,
नौकर जोकर न होने की ज़िद्द ने
दिल के भीतर
अपना सिर उठाया है ,
इस चाहत ने
एक अवांछित अतिथि सरीखा होकर
भीतर मेरे बवाल मचाया है ,
मुझे भीतर मतवातर चलने वाले
कोहराम के रूबरू कराया है।
कभी-कभी कोई
अंतर्घट का वासी
उदासी तोड़ने के निमित्त
पूछता है धीरे से ,
इतना धीरे से ,
कि न लगे भनक ,
तुम्हारे भीतर
क्या गोलमाल चल रहा है?
क्यों चल रहा है?
कब से चल रहा है?
वह मेरे अंतर्घट का वासी
कभी-कभी
ज़हर सने तीर
मेरे सीने को निशाना रख
छोड़ता है।
और कभी-कभी वह
प्रश्नों का सिलसिला ज़ारी रखते हुए ,
अंतर्मन के भीतर
ढेर सारे प्रश्न उत्पन्न कर
मेरी थाह लेने की ग़र्ज से
मुझे टटोलना शुरू कर देता है ,
मेरे भीतर वितृष्णा पैदा कर देता है ।
मेरे शुभचिंतक मुझे अक्सर कहते हैं ।
चुपचाप नौकरी करते रहो।
बाहर बेरोजगारों की लाइन देखते हो।
एक आदर्श नौकरी के लिए लोग मारे मारे घूमते हैं।
तुम किस्मत वाले हो कि नौकरी तुम्हें मिली है ।
उनका मानना है कि
दुनिया का सबसे आसान काम है,
नौकरी करना, नौकर बनना।
किसी के निर्देश अनुसार चलना।
फिर तुम ही क्यों चाहते हो?
... हवा के ख़िलाफ़ चलना ।
दिन दिहाड़े , मंडी के इस दौर में
नौकरी छोड़ने की सोचना ,
बिल्कुल है ,
एक महापाप करना।
जरूर तेरे अंदर कुछ खोट है ,
पड़ी नहीं अभी तक तुझ पर
समय की चोट है, जरूर ,जरूर, तुम्हारे अंदर खोट है ।
अच्छी खासी नौकरी मिली हुई है न!
बच्चू नौकरी छोड़ेगा तो मारा मारा फिरेगा ।
किसकी मां को मौसी कहेगा ।
तुम अपने आप को समझते क्या हो?
यह तो गनीमत है कि नौकरी
एक बेवकूफ प्रेमिका सी
तुमसे चिपकी हुई है।
बच्चू! यह है तो
तुम्हारे घर की चूल्हा चक्की
चल रही है ,
वरना अपने आसपास देख,
दुनिया भूख ,बेरोजगारी ,गरीबी से मर रही है ।
याद रख,
जिस दिन नौकरी ने
तुम्हें झटका दे दिया,
समझो जिंदगी का आधार
तुमने घुप अंधेरे में फेंक दिया।
तुम सारी उम्र पछताते नज़र आओगे।
एक बार यह छूट गई तो उम्र भर पछताओगे।
पता नहीं कब, तुम्हारे दिमाग तक
कभी रोशनी की किरण पहुंच पाएगी।
यदि तुमने अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मारी,
तो तुम्हारी कीमत आधी भी न रह जाएगी ।
यह जो तुम्हारी आदर्शवादी सोच है न ,
तुम्हें कहीं का भी नहीं छोड़ेगी।
न रहोगे घर के , न घाट के।
कैसे रहोगे ठाठ से ?
फिर गुजारा चलाओगे बंदर बांट से ।
इतनी सारी डांट डपट
मुझे सहन करनी पड़ी थी।
सच! यह मेरे लिए दुःख की घड़ी थी।
मेरी यह चाहत धूल में मिली पड़ी थी।
मेरे अंतर्मन ने भी मुझे डांट लगाई।
उसने कहा,"अरे नासमझ! अपनी बढ़ती उम्र का
कुछ तो ख्याल कर,
बेवजह तू बवाल न कर।
नौकरी छोड़ने की सोच कर,
तूं भर लेगा अपने अंदर डर।
मारा मारा फिरेगा डगर डगर।
अपनी नहीं तो
घरवाली और बच्चों की फ़िक्र कर ।
तुमसे तो
चिलचिलाती तेज धूप में
माल असबाब से भरी रिक्शा,
और उसे पर लदी सवारियां तक
ढंग से खींचीं न जाएगी।
यह पेट में जो हवा भर रखी है,
सारी पंचर होकर
बाहर निकल जाएगी।
फिर तुम्हें शूं शूं शूं शू शूंशूंश...!!!
जैसी आवाज ही सुनाई देगी ,
तुम्हारी सारी फूंक निकल जाएगी।
हूं !बड़ा आया है नौकरी छोड़ने वाला !
बात करता है नौकरी छोड़ने की !
गुलामी से निजात पाने की!!
हर समय यह याद रखना ,....
चालीस साल
पार करने के बाद
ढलती शाम के दौर में
शरीर कमज़ोर हो जाता है
और कभी-कभी तो
यह ज़वाब देने लगता है।
इस उम्र में यदि काम धंधा छूट जाए,
तो बड़ी मुश्किल होती है।
एक अदद नौकरी पाने के लिए
पसीने छूट जाते हैं।
यह सच है कि
बाज़ दफा
अब भी कभी-कभी
एक दौरा सा उठता है
और ज्यादा देर तक
नौकरी न करने का ख़्याल
पागलपन, सिरफ़िरेपन की हद तक
सिर उठाता है ।
पर अलबेला अंतर्घट का वासी वह
कर देता है करना शुरू,
रह रहकर, कुछ उलझे सुलझे सवाल ।
वह इन सवालों को
तब तक लगातार दोहराता है,
जब तक मैं मान न लूं उससे हार ।
यही सवाल
मां-बाप जिंदा थे,
तो बड़े प्यार और लिहाज़ से
मुझसे पूछा करते थे।
वे नहीं रहे तो अब
मेरे भीतर रहने वाला,
अंतर्घट का वासी
आजकल पूछने लगा है।
सच पूछो तो, मुझे यह कहने में हिचक नहीं कि
उसके सामने
मेरा जोश और होश
ठंड पड़ जाता है,
ललाट पर पसीना आ जाता है।
अतः अपनी हार मानकर
मैं चुप कर जाता हूं।
अपना सा मुंह लेकर रह जाता हूं ।
मुझे अपना अंत आ गया लगता है ,
अंतस तक
दिशाहीन और भयभीत करता सा लगता है।
सच है...
कई बार
आप बाह्य तौर पर
नज़र आते हैं
निडर व आज़ाद
पर
आप अदृश्य रस्सियों से
बंधे होते हैं ,
आप कुछ नया नहीं
कर पाते हैं,
बस !अंदर बाहर तिलमिलाते हैं ,
आपके डर अट्टहास करते जाते हैं।