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Nov 2024
अकेलेपन में
ढूंढता है
अरे बुद्धू  !
अलबेलापन।
जो
तू खो चुका है ,
सुख की नींद सो चुका है ।

अब
जीवन की भोर
बीत चुकी है।

समय के
बीतते बीतते ,‌
ज़िंदगी के
रीतते रीतते ,
अलबेलापन
अकेलेपन में
गया है बदल ।

चाहता हूं
अब
जाऊं संभल!
पर
अकेलापन ,
बन चुका है
जीने का संबल।
रह रह कर
सोचता हूँ ,
अकेलापन
अब बन गया है
काल का काला कंबल।
जो जीवन को
बुराइयों और काली शक्तियों से
न केवल बचाता है ,
बल्कि
दुःख सुख की अनुभूतियों ,
जीवन धारा में
मिले अनुभवों को
अपने भीतर लेता है  समो ,
और
आदमी
अकेलेपन के आंसुओं से
खुद को लेता है भिगो ।


सोचता हूँ
कभी कभार
अकेलापन करता है
आदमी को बीमार।

आदमी है एक घुड़सवार  
जो अर्से है ,
अकेलेपन के घोड़े पर सवार !

कहां रीत गया
यह अलबेलापन ?
कैसे बीत जाएगा
रीतते रीतते ,
आंसू सींचते सींचते,
यह अकेलापन ?

अब तो प्रस्थान वेला है ,
जिंदगी लगने लगी एक झमेला है!
हिम्मत संजोकर,
आगे बढ़ाने की ठानूंगा !


जैसा करता आया हूं  
अब तक ,‌
अपने अकेलेपन से
लड़ता आया हूं अब तक ।

देकर
सतत्
अनुभूति के द्वार पर दस्तक।

अपने मस्त-मस्त ,
मस्तमौला से
अलबेलेपन को
कहां छोड़ पाया हूं ?


अपने अलबेलेपन के
बलबूते पर
अकेलेपन की सलीब को
ढोता आया हूं !
अकेलेपन की नियति से
जूझता आया हूं !!


२१/०२/२०१७.
Written by
Joginder Singh
43
 
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