अकेलेपन में ढूंढता है अरे बुद्धू ! अलबेलापन। जो तू खो चुका है , सुख की नींद सो चुका है ।
अब जीवन की भोर बीत चुकी है।
समय के बीतते बीतते , ज़िंदगी के रीतते रीतते , अलबेलापन अकेलेपन में गया है बदल ।
चाहता हूं अब जाऊं संभल! पर अकेलापन , बन चुका है जीने का संबल। रह रह कर सोचता हूँ , अकेलापन अब बन गया है काल का काला कंबल। जो जीवन को बुराइयों और काली शक्तियों से न केवल बचाता है , बल्कि दुःख सुख की अनुभूतियों , जीवन धारा में मिले अनुभवों को अपने भीतर लेता है समो , और आदमी अकेलेपन के आंसुओं से खुद को लेता है भिगो ।
सोचता हूँ कभी कभार अकेलापन करता है आदमी को बीमार।
आदमी है एक घुड़सवार जो अर्से है , अकेलेपन के घोड़े पर सवार !
कहां रीत गया यह अलबेलापन ? कैसे बीत जाएगा रीतते रीतते , आंसू सींचते सींचते, यह अकेलापन ?
अब तो प्रस्थान वेला है , जिंदगी लगने लगी एक झमेला है! हिम्मत संजोकर, आगे बढ़ाने की ठानूंगा !
जैसा करता आया हूं अब तक , अपने अकेलेपन से लड़ता आया हूं अब तक ।
देकर सतत् अनुभूति के द्वार पर दस्तक।
अपने मस्त-मस्त , मस्तमौला से अलबेलेपन को कहां छोड़ पाया हूं ?
अपने अलबेलेपन के बलबूते पर अकेलेपन की सलीब को ढोता आया हूं ! अकेलेपन की नियति से जूझता आया हूं !!