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Nov 2024
जब संबंध शिथिल हो चुके हैं,
अपनी गर्माहट खो चुके हैं,
तब अर्से से न मिलने मिलाने का शिकवा तक,
हो चुका होता है बेअसर,
खो चुका होता है अपने अर्थ।
ऐसे में लगता है
कि अब सब कुछ है व्यर्थ।
कैसे कहूं  ?
किस से कहूं ?
क्यों ही कहूं?
क्यों न अपने  में सिमट कर रहूं ?
क्यों धौंस पट्टी सब की सहूं ?
अच्छा रहेगा ,अब मैं
चुप रहकर
अकेलेपन का दर्द सहूं।
वक्त की हवा के संग बहूं।


कभी-कभी
अपने मन को समझाता हूं,
यदि मन जल्दी ही समझ लेता है ,
जीवन का हश्र
एकदम से ,
तो हवा में
मैं उड़ पाता हूं !
वरना पर कटे परिंदे सा होकर
पल प्रति पल
कल्पना के आकाश से ,
मतवातर नीचे गिरता जाता हूं ,
जिंदगी के कैदखाने में
दफन हो जाता हूं।


मित्र मेरे,
पर कटे परिंदे का दर्द
परवाज़  न भर पाने की वज़ह से
रह रह कर काटता है मुझे ,
अपनी साथ उड़ने के लिए
कैसे तुमसे कहूं?
इस पीड़ा को
निरंतर मैं सहता रहूं ।
मन में पीड़ा के गीत गुनगुनाता रहूं ।
रह रह कर
अपने पर कटे होने से
मिले दर्द को सहलाता रहूं।
पर कटे परिंदे के दर्द सा होकर
ताउम्र याद आता रहूं।

१०/०१/२००९.
Written by
Joginder Singh
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