जब संबंध शिथिल हो चुके हैं, अपनी गर्माहट खो चुके हैं, तब अर्से से न मिलने मिलाने का शिकवा तक, हो चुका होता है बेअसर, खो चुका होता है अपने अर्थ। ऐसे में लगता है कि अब सब कुछ है व्यर्थ। कैसे कहूं ? किस से कहूं ? क्यों ही कहूं? क्यों न अपने में सिमट कर रहूं ? क्यों धौंस पट्टी सब की सहूं ? अच्छा रहेगा ,अब मैं चुप रहकर अकेलेपन का दर्द सहूं। वक्त की हवा के संग बहूं।
कभी-कभी अपने मन को समझाता हूं, यदि मन जल्दी ही समझ लेता है , जीवन का हश्र एकदम से , तो हवा में मैं उड़ पाता हूं ! वरना पर कटे परिंदे सा होकर पल प्रति पल कल्पना के आकाश से , मतवातर नीचे गिरता जाता हूं , जिंदगी के कैदखाने में दफन हो जाता हूं।
मित्र मेरे, पर कटे परिंदे का दर्द परवाज़ न भर पाने की वज़ह से रह रह कर काटता है मुझे , अपनी साथ उड़ने के लिए कैसे तुमसे कहूं? इस पीड़ा को निरंतर मैं सहता रहूं । मन में पीड़ा के गीत गुनगुनाता रहूं । रह रह कर अपने पर कटे होने से मिले दर्द को सहलाता रहूं। पर कटे परिंदे के दर्द सा होकर ताउम्र याद आता रहूं।