रचनाकार के पास एक सत्य था ।
उसका अपना ही अनूठा कथ्य था ।
उसने इसे जीवन का हिस्सा बनाया।
और अपनी जिंदगी की कहानी को ,
एक किस्सा बनाकर लिख दिया।
जब यह किस्सा, संपादक के संपर्क में आया।
तब सत्य ही , संपादक ने इसे अपनी नजरिये से देखा।
और उसने अपनी दृष्टिकोण की कैंची से, किया दुरुस्त।
फिर उसने इस किस्से को, पाठकों को दिया सौंप।
पाठक ने इसे पढ़कर, गुना और सराहा।
परंतु रचनाकार में पनप रहा था असंतोष।
उसे लगा कि संपादक ने किया है अन्याय।
रचनाकार खुद को महसूस कर रहा था असहाय।,
संपादक की जिम्मेदारी उसे एक सीमा में बांधे थी।
पाठक वर्ग और कुछ नीति निर्देशों से संपादक बंधा था।
वह रचनाओं की कांट, छांट, सोच समझ कर करता था ।
और रचनाकार को संपादक पूर्वाग्रह से ग्रस्त लगता था।
समय चक्र बदला, अचानक रचनाकार बना एक संपादक।
अब अपने ढंग से रचना को असरकारी बनाने के निमित्त,
किया करता है, सोच और समझ की कैंची से काट छांट।
सच ही अब, उसे हो चुका है, संपादन शैली का अहसास।
अब एक रचनाकार के तौर पर, वह गया है समझ।
रचनाकार भावुक ,संवेदनशील हो ,जाता है भावों में बह।
उसके समस्त पूर्वाग्रह और दुराग्रह चुके हैं धुल अब।
जान चुका है भली भांति , संपादक की कैंची की ताकत।
बेशक रचनाकार के पास अपना सत्य और कथ्य होता है।
पर संपादक के पास एक नजरिया ,अनूठी समझ होती है।
वह रचना पर कैंची चलाने से पूर्व अच्छे से जांचता है।
तत्पश्चात वह रचना को संप्रेषणीय बनाने की सोचता है।
जब जब संपादक ने कैंची से एक सीमा रेखा खींची।
तब तब रचना का कथ्य और सत्य असरकारक बना।
आज रचनाकार, संपादक और पाठक की ना टूटे कड़ी।
करो प्रयास, नेह स्नेह के बंधन से सृजन की डोर रहे बंधी।
न उठे रचनाकार के मानस में, दुःख ,बेबसी की आंधी।
२९/०८/२००५.