समय समर्थ है और आदमी उससे ,जब लेने लगता है होड़ तब कभी-कभी जीत अप्रत्याशित ही उसका साथ देती छोड़।
अपनी हार सदैव होती है बर्दाश्त से बाहर इससे करेगा कौन इन्कार?
आदमी ने कब नहीं वजूद की खातिर किया समझौता स्वीकार ? पर अंतरात्मा रही है साक्षी, सांसें रहीं घुटी घुटी। अंततः होना ही पड़ा आदमी और आदमियत को शनै: शनै: हाशिए से बाहर। आदमी भूलता गया वसंत का मौसम! उसे करना पड़ा पतझड़ का श्रृंगार !
सच! मैं अब उस समझौता परस्त आदमी सा होकर खड़ा हूं बीच बाज़ार, बिकने की खातिर एकदम घर और दफ्तर की चौखट से बाहर। साथ ही सर्वस्व हाशिए से बाहर होते जाने को अभिशप्त है , अंदर बाहर तक हड़बड़ाया !! जो करता रहा है इंतज़ार, जीवन भर ! बहार का नहीं , बल्कि पतझड़ का, ताकि हो सके संभव पतझड़ का श्रृंगार!! भले ही वसन्त देह के करीब से हवा का झोंका होकर जाए गुजर , पर छोड़ न पाएं अपना कोई असर।
सो आदमी करने लगता है कभी कभी सीधे ही जीवन में वसंत को छोड़ कर , पतझड़ का इंतजार ताकि कर सके वह पतझड़ का श्रृंगार। उसके लिए भी वसन्त की ही करनी पड़ती है प्रतीक्षा, तभी संभव है कि आदमी वसंत ऋतु में देख ले मन की आंखों के भीतर से, वसन्त कर रही है चुपचाप अपने आगमन की प्रतीति कराकर , अपनी उज्ज्वल काया से पतझड़ का श्रृंगार । ०६/०१/२००९.