'खुद को क्या संज्ञा दूं ? खुद को क्या सजा दूं ?' कभी-कभी यह सब सोचता हूं , रह जाता हूं भीतर तक गुमसुम । स्वत: स्व से पूछता हूं, "मैं?... गुमशुदा या ग़म जुदा?"
ज़िंदगी मुखातिब हो कहती तब कम दर कदम मंजिल को वर , निरंतर आगे अपने पथ पर बढ़ । अब ना रहना कभी गुमसुम । ऐसे रहे तो रह जाएंगी राहें थम। ऐसा क्या था पास तुम्हारे ? जिसके छिटकने से फिरते मारे मारे । जिसके खो जाने के डर से तुम चुप हो । भूल क्यों गए अपने भीतर की अंतर्धुन ?
जिंदगी करने लगेगी मुझे कई सवाल। यह कभी सोचा तक न था । यह धीरे-धीरे भर देगी मेरे भीतर बवाल । इस बाबत तो बिल्कुल ही न सोचा था। और संजीदा होकर सोचता हूं , तो होता हूं हतप्रभ और भौंचक्का।
खुद को क्या संज्ञा दू ? क्या सजा दूं बेखबर रहने की ? अब मतवातर सुन पड़ती है , बेचैन करती अपनी गुमशुदगी की सदा । जिसे महसूस कर , छोड़ देता हूं और ज्यादा भटकना। चुपचाप स्वयं की बाबत सोचता हुआ घर लौट आता हूं । जीवन संघर्षों में खुद को बहादुर बनाने का साहस जुटाऊंगा। मन ही मन यह वायदा स्वयं से करता हूं ।