अदालत के भीतर बाहर सच के हलफनामे के साथ झूठ का पुलिंदा बेशर्मी की हद तक क़दम दर क़दम किया गया नत्थी! सच्चे ने देखा , महसूसा , इसे पर धार ली चुप्पी। ऐसे में, अंधा और गूंगा बनना कतई ठीक नहीं है जी।
यदि तुम इस बाबत चुप रहते हो, तो इसके मायने हैं तुम भीरू हो, हरदम अन्याय सहने के पक्षधर बने हो। इस दयनीय अवस्था में झूठा सच्चे पर हावी हो जाता है। न्यायालय भी क्या करे? वह बाधित हो जाता है। अब इस विकट स्थिति में मजबूरी वश सच्चे को झुकना पड़ता है। बिना अपराध किए सज़ा काटनी पड़ती है।
क्या यही है सच्चे का हश्र और नियति ? बड़ी विकट बनी हुई है परिस्थिति। सोचता हूं कि अब हर पल की यह चुप्पी ठीक नहीं। इससे तो बस चहुं ओर उल्टी गंगा ही बहेगी। अब तुम अपनी आवाज़ को बुलंद बनाने की कोशिशें तेज़ करो। सच के पक्षधर बनो, भीतर तक साहसी बनो। छद्म धर्मनिरपेक्षता का मुखौटा उतार फेंको। ० ४/०८/२००९.