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Nov 2024
कैसे दिन थे वे!
हम चाय पकौड़ियों से
हो जाते थे तृप्त !
उन दिनों हम थे संतुष्ट।

अब दिन बदल गए क्या?
नहीं ,दिन तो वही हैं।
हम बदल गए हैं।
थोड़े स्वार्थी अधिक हुए हैं ।

उन दिनों
दिन भर खाने पीने की जुगत भिड़ाकर ।
इधर बिल्ली ,उधर कुत्ते को परस्पर लड़ा कर ।
हेरा फेरी, चोरी सीनाज़ोरी ,
मटरगश्ती, मौज मस्ती में रहकर ।
समय बिताया करते थे,
चिंता फ़िक्र को अपने से दूर रखा करते थे।
परस्पर एक दूसरे के संग
उपहास , हास-परिहास किया करते थे।


आजकल
सूरज की पहली किरण से लेकर,
दिन छिपने तक रहते असंतुष्ट !
कितनी बढ़ गई है हमारी भूख?
कितने बढ़ गए हैं हमारे पेट?
हम दिन रात उसे भरने का करते रहते उपक्रम।
अचानक आन विराजता है, जीवन में अंत।
हम आस लगाए रखते कि जीवन में आएगा वसंत।
हमारे जीवन देहरी पर,मृत्यु है आ  विराजती।
किया जाने लगता,
हमारा क्रिया कर्म।



कैसे दिन थे वे!
हम चाय पकौड़ियों से,
हो जाते थे तृप्त!
उन दिनों हम सच में थे संतुष्ट!!



अब अक्सर सोचता रहता हूं...
... दिन तो वही हैं...
हमारी सोच ही है प्रदूषण का शिकार हुई,
हमारे लोभ - लालच की है जिह्वा बढ़ गई,
वह ज़मीर को है हड़प  कर गई,
और आदमी के अंदर -बाहर गंदगी भर गई!
चुपचाप उज्ज्वल काया को मलिन कर गई!!



काश! वे दिन लौट आएं!
हम निश्चल हंसी हंस पाएं!!
इसके साथ ही, चाय पकौड़ी से ही प्रसन्न और संतुष्ट रहें।
अपने जीवन में छोटी-छोटी खुशियों का संचय करें।
जिंदगी की लहरों के साथ विचरकर स्वयं को संतुष्ट करें ।

  १८/०१/२००९.
Written by
Joginder Singh
27
 
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