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Nov 2024
सोच जरा।
यदि
नफरत नफे का सौदा होती,
तो
सारी दुनिया
इसे ढो रही होती ।
सोच जरा!
फुर्सत सुख नहीं दुःख देती है ,
फुर्सत
आफत की पुड़िया है,
जिससे पैदा होती गड़बड़ियां हैं ।
सोच जरा !रस का पान कर रहा भंवरा ,
रसिक बना नहीं कि जीवन संवरा ।
सच है रसहीनता जीवन की खुशियां नष्ट करती ।
रस का  ह्रास हुआ नहीं कि
नीरसता भीतर डर पैदा करने लगती।
सोच जरा !
तकदीर भरोसे बैठा रहकर,
आदमी दर-दर भटकता सर्वस्व गंवाकर ।
तकदीर बनाने की खातिर ,
अपना सब सुख चैन भूलाकर ।
दिन-रात परिश्रमी बनना पड़ता ,
सोच जरा !
बस !सोच जरा सा !!
कर्म कर ढेर सारा,
नहीं फिरेगा मारा मारा ।
भीतर रहती सोच
अक्सर यह कहती है ।
'बाहर पलती सोच 'से
यह लड़ना चाहती है ।
यह एक द्वंद्व कथा रचना चाहती है ।
यह अंतर्द्वंद्व व्यथा से बचाना ,जो चाहती है !!
२६/०७/२०२०.
Written by
Joginder Singh
46
 
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