सोच जरा। यदि नफरत नफे का सौदा होती, तो सारी दुनिया इसे ढो रही होती । सोच जरा! फुर्सत सुख नहीं दुःख देती है , फुर्सत आफत की पुड़िया है, जिससे पैदा होती गड़बड़ियां हैं । सोच जरा !रस का पान कर रहा भंवरा , रसिक बना नहीं कि जीवन संवरा । सच है रसहीनता जीवन की खुशियां नष्ट करती । रस का ह्रास हुआ नहीं कि नीरसता भीतर डर पैदा करने लगती। सोच जरा ! तकदीर भरोसे बैठा रहकर, आदमी दर-दर भटकता सर्वस्व गंवाकर । तकदीर बनाने की खातिर , अपना सब सुख चैन भूलाकर । दिन-रात परिश्रमी बनना पड़ता , सोच जरा ! बस !सोच जरा सा !! कर्म कर ढेर सारा, नहीं फिरेगा मारा मारा । भीतर रहती सोच अक्सर यह कहती है । 'बाहर पलती सोच 'से यह लड़ना चाहती है । यह एक द्वंद्व कथा रचना चाहती है । यह अंतर्द्वंद्व व्यथा से बचाना ,जो चाहती है !! २६/०७/२०२०.