गुप्त न रहेगा! यह नियति है !! विचित्र स्थिति है! वह सहजता से होता है प्रकट अपनी संभावना को खोकर।
गुप्त भेद खुल जाने पर हो जाता है लुप्त! न!न! असलियत यह है कि वह अपने भेदों को मतवातर छुपाता आया है आज अचानक भेद खुलने से उसका हुआ है अवसान। सारे भेद हुए प्रकट यकायक। भीतर तक शर्मसार!! अस्तित्व झिंझोड़ा गया!!लगा दंश!! कोई अंत की सुई चुभोकर, कर गया बेचैन। जगा गया गहरी नींद से, और स्वयं सो गया गहरी नींद में। वह मेरा प्रतिबिंब आज अचानक खो गया है , जिसे गुप्त के अवसान के नाम से नई पहचान दे दी तुमने जाने अनजाने ही सही,हे मेरे मन! तुम्हें मेरा सर्वस्व समर्पण।! ,हे मेरे प्यारे , न्यारे मन!