दंगा दंग नहीं तंग करता है, यह मन की शांति को भंग करता है। दंगाई बेशक अक्ल पर पर्दा पड़ने से जीवन के रंगों को न केवल काला करता है , बल्कि वह खुद को एक कटघरे में खड़ा करता है।
उसकी अस्मिता पर लग जाता है प्रश्नचिह्न। दंगे के बाद भीतर उठे प्रश्न भी मन को कोयले सरीखा एक दम स्याह काला कर देते हैं कि वहां उजाला पहुंचना नामुमकिन हो जाता है, फिर दंगाई कैसे उज्ज्वल हो सकता है ? वो तो समाज के चेहरे पर स्याही पोतने का काम करता है। उसके कृत्यों से उसका हमसफ़र भी घबराता है। वह धीरे-धीरे दंगाई से कटता जाता है। बेशक वह लोक दिखावे की वज़ह से साथ निभाता लगे।
दंगा मानव के चेहरे से नक़ाब उतार देता है और असलियत का अहसास कराता है। दंगाई न केवल नफ़रत फैलाता है, बल्कि उसकी वज़ह से आसपास कराहता सुन पड़ता है।
इस कर्कश कराहने के पीछे-पीछे विकास के विनाश का आगमन होता है , इसे दंगाई कहां समझ पाता है? यह भी सच है कि दंगा सुरक्षा तंत्र में सेंध लगाता है। दंगा अराजकता फैलाने की ग़र्ज से प्रायोजित होता है। इसके साथ ही यह समाज का असली चेहरा दिखाता है और आडंबरकारी व्यवस्था की असलियत को जग ज़ाहिर कर देता है।
भीड़ तंत्र का अहसास है दंगा, जो यदा-कदा व्यक्ति और समाज के डाले परदे उतार देता है ,साथ ही नक़ाब भी। यह देर तक इर्द-गिर्द बेबसी की दुर्गन्ध बनाये रखता है , सोई हुई चेतना को जगाये रखता है।