आज फिर बंदर
दादा जी को छेड़ने
आ पहुंचा।
दादा ने छड़ी दिखाई, कहा,"भाग।"
जब नहीं भागा तो दादू पुनः चिल्लाए,"भाग, सत्यानाशी...।"
तत्काल,बंदर ने कुलाठी लगाई
और नीम के पेड़ पर चढ़कर
पेड़ के साथ लगी, ग्लो की बेल,
जिसकी लताएं , नीम पर चढ़ी थीं,से एक टहनी तोड़,
दांतों से चबाने लगा।
मुझे लगा, चबाने के साथ,वह कुछ सतर्कता भी
दिखा रहा था।
बूढ़े दादू उस पर लगातार चिल्ला रहे थे ,
उसे भगा रहे थे।
पर वह भी ढीठ था,पेड़ की शाखा पर बैठा रहा,
अपनी ग्लो की डंडी चबाने की क्रिया को सतत करता रहा।
उसने आराम किया और बंदरों की टोली से जा मिला।
दादू अपने पुत्र और पोते को समझा रहे थे।
ये होते हैं समझदार।
वही खाते हैं,जो स्वास्थ्यवर्धक हो ।
इंसान की तरह बीमार करने वाला भोजन नहीं करते।
मुझे ध्यान आया,
बस यात्रा के दौरान पढ़ा एक सूचना पट्ट,
जिस पर लिखा था,
"वन क्षेत्र शुरू।
कृपया बंदरों को खाद्य सामग्री न दें,
यह उन्हें बीमार करती है ।"
मुझे अपने बस के कंडक्टर द्वारा
बंदरों के लिए केले खरीदने और बाँटने का भी ध्यान आया।
साथ ही भद्दी से नूरपुरबेदी जाते समय
बंदरों के लिए केले,ब्रेड खरीदने
और बाँटने वाले धार्मिक कृत्य का ख्याल भी।
हम कितने नासमझ और गलत हैं।
यदि उनका ध्यान ही रखना है तो क्यों नहीं
उनके लिए उनकी प्रकृति के अनुरूप वनस्पति लगाते?
इसके साथ साथ उनके लिए
शेड्स और पीने के पानी का इंतजाम करवाते।
भिखारियों को दान देने से
अच्छा है
वन विभाग के सहयोग से
वन्य जीव संरक्षण का काम किया जाए।
प्रकृति मां ने
जो हमें अमूल्य धन सम्पदा
और जीवन दिया है ,
उससे ऋण मुक्त हुआ जाए।
प्रकृति को बचाने,उसे बढ़ाने के लिए
मानव जीवन में जागरूकता बढ़ाई जाए।
समाज को वनवासियों के जीवन
और उनकी संस्कृति से जोड़ा जाए।
निज जीवन में भी
सकारात्मक सोच विकसित की जाए ,
ताकि जीवन शैली प्रकृति सम्मत हो पाए।